Friday, May 29, 2009

सुप्रीमो को सुप्रीम कोर्ट का संरक्षण

सुप्रीमो को सुप्रीम कोर्ट का संरक्षण

-अजी सुनते हो.......! सुबह-सुबह चाय के कप से भी पहले श्रीमती जी की मधुर वाणी हमारे कानों में पडते ही हम समझ जाते हैं कि आज जरूर कोई नई रामायण में महाभारत होने होने वाली है। आप सोचते होगें कि अजीब प्राणी है । भला रामायण में महाभारत की क्या तुक है। दोनों का एक दूसरे के साथ भला क्या तालमेल....?लेकिन बन्धु ऐसा ही होता है शादी-शुदा जिन्दगी में सब कुछ संभव है।जब मेरे जैसे भले जीव के साथ हमारी श्रीमती जी का निर्वाह संभव हो सकता है तो समझ लीजिऐ कि रामायण में महाभारत भी हो सकती है। श्रीमती की वाणी से वैसे ही हमारे कान ही क्या रौंगटे तक खडे हो जाते हैं। हम तपाक से बोले -‘-बेगम तुम्हें तो मालूम ही है कि हम जब भी सुनते हैं तो केवल तुम्हारी ही सुनते हैं वर्ना किसी की क्या मजाल कि हमें कूछ भी सुना सके.........?’--सुनोगे क्यॊं नहीं भला......? हजार बार सुनना पडेगा..... अब तो आप कुछ भी नहीं कर सकते.......!_-भागवान हम तो पहले ही तु्म्हारे समने हथियार डाले खडे हैं फिर भला किस बात का झगडा......? -झगडा कर भी कैसे सकते हैं आप......?-क्यों झगडा करने पर क्या सरकार ने टेक्स लगा दिया है या फिर संविधन में कोई संशोधन लागू हो गय है जिससे मर्दों की बोलती बन्द हो गई है...?-ये पढिये अखबार... सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों ने कहा है कि यदि शांति चहते हो तो धर्म पत्नी की बात माननी होगी....!-इसमें भला नई बात क्या हुई......? हर कोई समझदार पुरुष जानता है कि गृह शान्ती के लिऐ गृहमंत्राणी को प्रसन्न रखन जरूरी है । समझदार मर्द की बस यही तो एक मात्र मजबूरी है । और पत्नी है कि पुरुष की समझदरी को कमजोरी समझकर भुनाने लगती है .।शादी के समय पंडित जी भी बेचारे पुरुष को सात बचनों में इस तरह बांध देते हैं कि यदि पुरुष को वे वचन याद रह जाऐं तो आधा तो बेचारा वैसे ही घुट-घुट कर बीमार हो जाऐ । आजादी से सांसे लेने पर भी बेचारे के पहरे लग जाते है।इसीलिऐ हमारे जैसे बुद्धीमान लोग ऐसी दुर्घटनाओं को याद ही नहीं रखते। शायद इसीलिऐ अभी तक श्रीमती के साथ रहते हुऐ भी सभी बीमरियों से मुक्त हैं और शत-प्रतिशत स्वस्थ्य हैं ।अब आप ही बताऐं कि भला सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों को सरे आम ऐसी नाजुक बाते कहने कि क्या जरूरत थी....? उन्हें मालूम होना चहिऐ कि आजकल ऐसी खबरें महिलओं तक जल्दी पहुंचती है ।क्योंकि साक्षारता का प्रतिशत भी तो काफी बढ गया है। वसे भी सुप्रीमो को भल किसी कोर्ट के संरक्षण की क्या जरुरत ......संरक्षण तो हम जैसे निरीह प्राणियों को चाहिऐ........?
अब आगे -आगे देखिये होता है ,
न्याय उनका हो गया रोता है क्या ॥

डॉ.योगेन्द्र मणि

Saturday, May 16, 2009

जय हो......!

जय हो.........!.लोकतन्त्र......!! जय हो .....!!!
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लोकसभा चुनाव के प्रारम्भ में किसी ने नारा लगाया जय हो, तो किसीने गजल के काफिये की तरह कहा भय हो, तो कोई इससे भी चार कदम आगे बढ़ गया और बोला-कै हो.....! अब चुनाव समाप्त होने साथ ही ई.वी.एम. मशीनों में बन्द नतीजे भी सबके सामने हैं ।जिसने सबसे पहले जय हो का नारा लगाया उसकी जय हो गई और भय हो का नारा लगाने वालों को जनता ने नतीजों से भयभीत कर दिया.......।चुनावी नतीजों से यह बात तो स्पष्ट है कि जनता अब नेताओं की बांदी नहीं है कि जिसे नेता अपने हित के लिऐ औजार के रूप में इस्तेमाल कर सकें.....?
चुनाव के पहले कुछ अति उत्साहित कुर्सी भक्तों ने कुर्सी दौ्ड़ में सभी नैतिकताओं को दरकिनार कर सत्ता सुखकी चाह में जनता को गुमराह कर इधर-उधर दौड लगाई लेकिन जनता ने उन्हें सबक सिखाते हुऐ चौराहे पर लकर खडा कर दिया । जहाँ से उन्हें अब सोचने पर मजबूर होना पड रहा होगा कि उन्हें भला बिना सोचे समझे जय हो का नारा छोड कर अलग से ही अपनी खिचडी पकाने की क्या जरूरत थी ।लालू- पासवान की यादवी जुगलबन्दी टांय- टांय फिस्स हो गई....।राम जी ने भय हो के नारों से नाता तोड लिया । उन्हें तो एक मात्र राम जी का ही था जब उन्होंने ही नाता तोड लिया तो ऐसे में राम भक्तों के दिल पर क्या बीत रही है यह तो वे ही बत पायेगें,लेकिन शायद राम जी को भी मालूम हो गया है कि आजकल लोग उसका नाम केवल जनता से वोट के लिऐ ही करते हैं वोट लेने के बाद सब भूल जाते हैं कि मन्दिर कहाँ पर बनना है काश राम जी का नाम वॊट लेने के बाद भी वे ध्यान रखते तो शायद राम जी भी उनका कुछ तो ख्याल रख ही लेते......?अब भैय्या जी से हमने कहा कि अब राम जी कहाँ रहेगें तो वे भी तपाक से बोले- कहीं भी रहें हमें क्या.....? जब उन्हें ही अपने ठिकाने की चिन्ता नहीं है तो हम भी क्यों दुबले हों.....?
चुनाव की घोषणा होते ही जो सत्ता सुख भोग रहे थे उनमें से कुछ ने सोचा कि अब तो हम ही हम हैं , और हम भला किसी से कहाँ कम हैं ।बस फिर क्या था पैर का एक अंगूठा सत्ता की नाव पर रखा और दूसरा पैर लगा जमीन तलाशने.....अब दूसरा पैर रखने की जमीन तो मिली नहीं सत्ता की नाव भी अंगूठे के नीच से खिसकने लगी है।क्योकि इन्होंने सोचा था कि अगर यह नाव डूब गई तो दूसरी नाव में तुरन्त ही छलांग लगा लेगें लेकिन हार री किस्मत बीच में ही धोखा दे गई......!
अडवाणी जी की तो दिल की हसरत दिल में रह गई ,जो तो सही है लेकिन जनता ने रोजाना पैदा हो रहे नये-नये प्रधान मन्त्रियों के अरमानों की भी हत्या कर दी। बेचारे टी वी वाले और समाचार पत्रों वाले भी बडी उम्मीद लगाऐ बैठे थे कि चुनाव के बाद नतीजे आने पर सभी दल अपनी-अपनी ढपली बजाकर पीएम की कुर्सी की सौदे बाजी करेगें तो कम से कम कुछ दिनों का मसाला ही मिलेगा लेकिन जनता ने तो सभी की उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया। इसीको कहते हैं लोकतन्त्र......! जहाँ जनता नेताओं की सुविधा से सरकार चुनने को बाध्य नहीं बल्कि अपनी सुविधा के अनुसार अच्छे- बुरे की पहिचान कर अपने विवेक से सही और गलत का स्वयं निर्णय लेने में सक्षम है।कुछ लोग जिन्हें शायद यह भ्रम होने लग था कि वे तो पैदा ही कुर्सी के लिऐ हुऐ हैं इस तरह के लोगों को अब अपनी सोच अवश्य ही बदलनी होगी।

Tuesday, May 5, 2009

मेरी ड्रेस का अब क्या होगा...?
आज सुबह -सुबह श्रीमती जी को न जाने क्या हुआ कि अखबार हाथ में लिऐ हमारे पास आई और बोली- आज का अखबार पढा आपने......! हम चकराऐ - भाग्यवान आज भला ऐसा क्या तूफान आगया जो तुम सुबह-सुबह इतनी परेशान हो रही हो...। वे तपाक से बोली - परेशानी की तो बात ही है जे डी बी गर्ल्स कालेज में इस साल से ड्रेस कोड लागू होगा। हमने कहा - भला इसमें परेशान होने वाली क्या बात है बल्की यह तो अच्छी बात है कि कालेज में ड्रेस कोड लागू होगा ..।हमारी तरफ से उनकी बात को समर्थन नहीं मिलना शायद उन्हें अच्छा नहीं लगा। वे तपाक से बोली-क्या खाक अच्छी बात है ........तुम्हें मालूम है कि हमारी बिटिया ने बडे चाव से दो दर्जन नई ड्रेस सिलवाई थी, अब हो गई न सारी की सारी बेकार.........!हम परेशान भला कालेज जाने के लिऐ दो दर्जन ड्रेस.........?हमने कहा- श्रीमती जी कालेज जाने के लिऐ भला इतनी सारी ड्रेस सिलवाने की क्या जरूरत थी..?-तो आप क्या चाहते हैं कि हमारी बेटी दो जोडी कपडों में ही साल भर निकाल दे...?-भाग्यवान कालेज में लडकियों को हम पढ़्ने के लिऐ भेजते हैं या ड्रेस की नुमायश करने...?-आपकी समझ में ये बातें नहीं आने वाली स्कूल में तो बरसों यह मुई ड्रेस बच्चियों के पीछे पडी ही रहती थी अब कालेज में भी पीछा नही छोड रही है। बच्चियों का भी मन करता है कि थोडा अच्छा पहनें....आखिर हमारी बेटियों के भी तो कुछ अरमान हैं कि नहीं.....। यदि ये कालेज में ही मनपसन्द का नहीं पहिन सकेगी तो भला कब पहनेगीं.......?-देवी जी छात्राऐं कालेज में पढ़्ने के लिऐ जाती हैं या फिर अपनी ड्रेस दिखाने के लिऐ.....? पहिनने ओढ़ने के लिऐ तो सारी जिंदगी पडी है...... कम से कम पढ़्ने के समय , ड्रेस का चक्कर छोड्कर यदि पढ़ाई में ज्यादा ध्यान दिया जाऐ तो बहतर होगा...इन लडकियों के लिऐ भी और उनके मॉ-बाप के लिऐ भी....?-मर्दों को तो बेचारी बच्चियों का क्या पूरी महिला बिरादरी का ही पहिनना ओढ़्ना अच्छा नहीं लगता है......!अब भला मैं इन्हें कैसे समझाऊँ कि कालेज में लडकियां आजकल ऐसे ऐसे कपडे पहिन कर जाती हैं जिसे देखकर कभी कभी लगता है जैसे कि यह कालेज न होकर कोई फैशन शॊ का स्टेज हो.....?जो समृद्ध हैं वे तो अपनी अमीरी का प्रदर्शन करती ही हैं लेकिन मध्यम वर्ग और कमजोर तबके के लोगों के लिऐ अपनी बेटियों की जरूरते पूरी करना कई बार बूते से बाहर हो जाता है जिससे कुछ छात्राओं के मन में हीन भावनाऐं जन्म लेने लगती हैं। ऐसी स्थिति में कालेज स्तर पर भी ड्रेस लागू करने में भला बुराई भी क्या है....! लेकिन फिर भी पसन्द अपनी -अपनी ख्याल अपना- अपना....हम भला क्यों दाल भात में मूसल चन्द बने.....।