Saturday, May 16, 2009

जय हो......!

जय हो.........!.लोकतन्त्र......!! जय हो .....!!!
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लोकसभा चुनाव के प्रारम्भ में किसी ने नारा लगाया जय हो, तो किसीने गजल के काफिये की तरह कहा भय हो, तो कोई इससे भी चार कदम आगे बढ़ गया और बोला-कै हो.....! अब चुनाव समाप्त होने साथ ही ई.वी.एम. मशीनों में बन्द नतीजे भी सबके सामने हैं ।जिसने सबसे पहले जय हो का नारा लगाया उसकी जय हो गई और भय हो का नारा लगाने वालों को जनता ने नतीजों से भयभीत कर दिया.......।चुनावी नतीजों से यह बात तो स्पष्ट है कि जनता अब नेताओं की बांदी नहीं है कि जिसे नेता अपने हित के लिऐ औजार के रूप में इस्तेमाल कर सकें.....?
चुनाव के पहले कुछ अति उत्साहित कुर्सी भक्तों ने कुर्सी दौ्ड़ में सभी नैतिकताओं को दरकिनार कर सत्ता सुखकी चाह में जनता को गुमराह कर इधर-उधर दौड लगाई लेकिन जनता ने उन्हें सबक सिखाते हुऐ चौराहे पर लकर खडा कर दिया । जहाँ से उन्हें अब सोचने पर मजबूर होना पड रहा होगा कि उन्हें भला बिना सोचे समझे जय हो का नारा छोड कर अलग से ही अपनी खिचडी पकाने की क्या जरूरत थी ।लालू- पासवान की यादवी जुगलबन्दी टांय- टांय फिस्स हो गई....।राम जी ने भय हो के नारों से नाता तोड लिया । उन्हें तो एक मात्र राम जी का ही था जब उन्होंने ही नाता तोड लिया तो ऐसे में राम भक्तों के दिल पर क्या बीत रही है यह तो वे ही बत पायेगें,लेकिन शायद राम जी को भी मालूम हो गया है कि आजकल लोग उसका नाम केवल जनता से वोट के लिऐ ही करते हैं वोट लेने के बाद सब भूल जाते हैं कि मन्दिर कहाँ पर बनना है काश राम जी का नाम वॊट लेने के बाद भी वे ध्यान रखते तो शायद राम जी भी उनका कुछ तो ख्याल रख ही लेते......?अब भैय्या जी से हमने कहा कि अब राम जी कहाँ रहेगें तो वे भी तपाक से बोले- कहीं भी रहें हमें क्या.....? जब उन्हें ही अपने ठिकाने की चिन्ता नहीं है तो हम भी क्यों दुबले हों.....?
चुनाव की घोषणा होते ही जो सत्ता सुख भोग रहे थे उनमें से कुछ ने सोचा कि अब तो हम ही हम हैं , और हम भला किसी से कहाँ कम हैं ।बस फिर क्या था पैर का एक अंगूठा सत्ता की नाव पर रखा और दूसरा पैर लगा जमीन तलाशने.....अब दूसरा पैर रखने की जमीन तो मिली नहीं सत्ता की नाव भी अंगूठे के नीच से खिसकने लगी है।क्योकि इन्होंने सोचा था कि अगर यह नाव डूब गई तो दूसरी नाव में तुरन्त ही छलांग लगा लेगें लेकिन हार री किस्मत बीच में ही धोखा दे गई......!
अडवाणी जी की तो दिल की हसरत दिल में रह गई ,जो तो सही है लेकिन जनता ने रोजाना पैदा हो रहे नये-नये प्रधान मन्त्रियों के अरमानों की भी हत्या कर दी। बेचारे टी वी वाले और समाचार पत्रों वाले भी बडी उम्मीद लगाऐ बैठे थे कि चुनाव के बाद नतीजे आने पर सभी दल अपनी-अपनी ढपली बजाकर पीएम की कुर्सी की सौदे बाजी करेगें तो कम से कम कुछ दिनों का मसाला ही मिलेगा लेकिन जनता ने तो सभी की उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया। इसीको कहते हैं लोकतन्त्र......! जहाँ जनता नेताओं की सुविधा से सरकार चुनने को बाध्य नहीं बल्कि अपनी सुविधा के अनुसार अच्छे- बुरे की पहिचान कर अपने विवेक से सही और गलत का स्वयं निर्णय लेने में सक्षम है।कुछ लोग जिन्हें शायद यह भ्रम होने लग था कि वे तो पैदा ही कुर्सी के लिऐ हुऐ हैं इस तरह के लोगों को अब अपनी सोच अवश्य ही बदलनी होगी।

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