Sunday, March 1, 2009

घण्टा घर

घंटागर शहर का एक मात्र व्यस्ततम केन्द्र है जहाँ लगता है यहाँ रहने वाले लोग इस व्यस्त भाग दौड़ वाली जिंदगी में भी बिल्कुल फ्री ही फ्री हैं और उनके पास टाइम ही टाइम है जिसे गुजारने के लिए ही ये यहाँ जमघट लगाए रहते हैं।
दिन का समय हो या रात के बारह बजे हों ,हर समय पान की दुकान या चाय की जवान मनचलों से लेकर एक्सपायरी ड़ेट कि दवाई की तरह के एसे उमर दराज़ लोग, जो बहू बेटोंके तानों के बोझ से कसमसा रहें है यहाँ मिल जाऐगें।जो कि अपने मन का बोझ हल्का करने के लिए या तो इधर उधर जर्दे की पीक थूकते नजर आऐगें या फिर आधी बीड़ी फूककर आधीबुझी बीड़ी को बटुऐ में ठूसते दिखेगें।
इसे देखकर लगता है किइन्हें आज से ज्यादा कल की चिन्ता है।क्योंकि हो सकता है कि कल बीड़ी का सुट्टा कगाना भी नसीब हो या नहीं हो....?या फिर ऊपर वाले का ही बुलावा आजाये। इन्हें शायद चिन्ता है कि यदि बुलावा आ ही गया तो किसे पता किवहाँ बीड़ी की तलब पूरी हो भी पाऐगी या नहीं...!वैसे भी क्या पता वहाँ देसाई छाप मिले या फिर गणेश छाप.....ब्रांड़ बदलते ही सारा टेस्ट बिगड़ जता है....।
एसे ही एक्सपायरी ड़ेट के बुजुर्ग नौजवान हैं हमारे भैय्या जी...जो सठियाने की उम्र पार कर के भी अभी तक जवान हैं।उनसे बात करो घर की तॊ खलियान तक का रास्ता बता देंगेल्लेकिन घर के दर्वाजे का दर्श्न नहीं होने देगें।बेचारा सामने वाला ही भूल जाता है कि वह यहाँ कर क्या रहा है...?और यदि उनके साथ जुम्मन चाचा बातों का तड़का लग जाऐ तो अच्छे अच्छे बुद्धिजीवइयों की बुद्धी पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है....?
सोचता हूँसारी बुद्धी तो भैय्या जी और जुम्मन चाचाके पास है तो बुद्धिजीवी भला क्या बेच कर खाते होंगें ...? सर्वधर्म सम्पन्न है यह घण्टाघर...।वैसे ‘धर्म’श्ब्द का उपयोग कथित रूप से अम आदमी के लिऐ प्रतिबन्धित है । क्योंकि इसका उपयोग प्रायःसिआसी पार्टियां या फिर कथित नेता ही करते हैं ।जब जब कुर्सी की लड़ाई शुरू होती है तो बैय्या जी को भी अहसास होने लगता है कि वह हिन्दू हैऔर जुम्मन चाह्चा की नींद खुलती है कि वह मुसलमान है।कुर्सियों की दौड़ के समय के अलावासभी को ही एसा लगता है कि वे सभी हिन्दुस्तानी हैं।
ईद की सवैयां हो या होली दीवाली की मिठाई सभी मिलकर इनका स्वाद लेते हैं।एक साथ चाय की चुस्कियांलेकर जर्दा घिसते भैय्याजी और जुम्मन चाचा भी अब समझनें लगे हैंअब इस कुर्सी संग्राम के दाव पेंचों को...।इसीलिए तो वक्त बेवक्थोते रहने वाले इस मौसमी बदलाव का अब इन पर कोई असर नहीं होता । इन सभी से अनजानाज भी ये अच्छे लंगोटिया यार होने का दम बरते हैं। वैसे देखा जाए तो घण्टाघर का आम आदमी भी बातों बातों मेंकब कोटा की तंग गलियों से निकल कर कब संसंद भवन और रात्रपति भवन में प्रवेशकर जयपुर की व्ज्धान सभा की छत से कूद कर दशहरा मैदान की क्जहानी सुनाने लगे पता नहीं चलता ......।

डा.योगेन्द्र माणि

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