Monday, June 1, 2009

मलाईदार -मलाई

मलाईदार -मलाई
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जब से मनमोहनी सरकार ने दोबार से होश संभालन शुरु किया, तभी से समाचार पत्रों में मलाईदार विभाग बडी ही चर्चा का विषय रहा है।जनता तो मनमोहन सिंह की मोह-मा्या में फंस गई लेकिन सरकारी बैसाखियां हैं कि मलईदार मंत्रालयों के दरिया में डुबकी लगाने की तैयारी में जुट गई थी।नतीजा सामने है कि मनमोहन की मोहनी सूरत पर मुस्कान आने से पहले ही गायब हो गई और मंत्रियों की घोषणा वे खुले मन से नहीं कर पाऐ।
पिछली बार जब सरकार बनाई थी तो कभी लेफ्ट गुर्राता था तो कभी राइट.....। बडी मुश्किल से संसदीय कुनबे की संभाल पूरे पाँच साल तक की जा सकी...?इसबार जनता ने कूछ दमदारी से उन्हें सरकार की कमान संभलाई तो लगा था कि कमसे कम इस बार तो सिंह साहब अपनी इच्छा से सांस ले सकेगें और लगाम केवल पार्टी सुप्रीमो के पास एक ही हाथ में रहेगी लेकिन इस बार भी बेचारे करुणा और ममता के साथ पंवार की पावर के चक्कर में फंस ही गये। सिंह सहब को एक बार फिर सरकार की इन बैसाखियों की रिपेयरिंग के लिऐ आला कमान की शरण में जाना ही पडा.......। वहाँ से बैसाखियों की रिपेयरिंग करवाकर जनता के सामने नई पुरानी चाशनी से युक्त मलाई -मक्खन वाले विभागों का तलमेल बिठाकर पेश किया गया ।
इस मलाई दार के शोर की गूँज हमारी श्रीमती के कानों में भी पहुंचनी लाजमी थी। तभी तो उन्होंने एक दिन हमसे पूछ ही लिया-ये मलाईदार क्या बला है....?
हमने अपनी कुशाग्र बुद्धी का प्रमाण देते हुऐ तुरन्त जबाब दिया- दूध..... अच्छा बढिया वाला दूध ....मलाईदार होता है...!हमार इतना कहना था कि हमें लगा जैसे बिना गैस का चूल्हा जलाऐ ही दूध में उफान आने वाला है.....? श्रीमती जी तुरन्त बोली-आप क्या मुझे उल्लु समझते हैं.....? सभी मंत्री पद के लिऐ मलाईदार विभाग ढुढ रहे हैं .... मैं पूछती हूँ कि मन्त्रालयों में मलाई भला आई कहाँ से.....? वहाँ क्या पंजाब से भैंस लाकर बांध रखी हैं मनमोहन जी ने.....?
अब भला हम श्रीमती जी को कैसे समझाऐं कि जिस विभाग में दान दक्षिणा और ऊपरी कमाई की जितनी अधिक गुंजाइश होती है वह विभाग सरकरी भाषा में आजकल मलाईदार विभाग कहलाता है ....।अब कहने के लिऐ तो सभी जन सेवक हैं। जनता की सेवा करने के लिऐ ही सभी राजनीति में आऐ हैं।तभी तो पाँच साल में ही बेचारे जनता का दुख-दर्द ढोते- ढोते करोडपति हो जाते हैं......।
अजीब गोरख-धंधा है ऊपर वाले का भी.......! जनता पसीना बहाते- बहाते रोटी के जोड-भाग में हाँफने लगती है लेकिन नेता जी उसी पसीने में इत्र डालकर नहाने से करोडपति हो जाते है.......? तभी तो मन्त्री बनते समय किसी को भी इस बात कोई चिन्ता नहीं होती कि गरीब का उद्धार कैसे होगा सभी की मात्र यही गणित होती है कि जनता का कुछ हो या न हो मेरे परिवार का उद्धार कैसे होगा..........?और वह अपने कुनबे की गरीबी दूर करने में सफल भी हो ही जाता है... बेचारी जनता का क्या है उसे तो वोट देनी है अगले चुनाव आऐगें तो फिर एक बार वोट दे देगी........!!

डॉ. योगेन्द्र मणि

Friday, May 29, 2009

सुप्रीमो को सुप्रीम कोर्ट का संरक्षण

सुप्रीमो को सुप्रीम कोर्ट का संरक्षण

-अजी सुनते हो.......! सुबह-सुबह चाय के कप से भी पहले श्रीमती जी की मधुर वाणी हमारे कानों में पडते ही हम समझ जाते हैं कि आज जरूर कोई नई रामायण में महाभारत होने होने वाली है। आप सोचते होगें कि अजीब प्राणी है । भला रामायण में महाभारत की क्या तुक है। दोनों का एक दूसरे के साथ भला क्या तालमेल....?लेकिन बन्धु ऐसा ही होता है शादी-शुदा जिन्दगी में सब कुछ संभव है।जब मेरे जैसे भले जीव के साथ हमारी श्रीमती जी का निर्वाह संभव हो सकता है तो समझ लीजिऐ कि रामायण में महाभारत भी हो सकती है। श्रीमती की वाणी से वैसे ही हमारे कान ही क्या रौंगटे तक खडे हो जाते हैं। हम तपाक से बोले -‘-बेगम तुम्हें तो मालूम ही है कि हम जब भी सुनते हैं तो केवल तुम्हारी ही सुनते हैं वर्ना किसी की क्या मजाल कि हमें कूछ भी सुना सके.........?’--सुनोगे क्यॊं नहीं भला......? हजार बार सुनना पडेगा..... अब तो आप कुछ भी नहीं कर सकते.......!_-भागवान हम तो पहले ही तु्म्हारे समने हथियार डाले खडे हैं फिर भला किस बात का झगडा......? -झगडा कर भी कैसे सकते हैं आप......?-क्यों झगडा करने पर क्या सरकार ने टेक्स लगा दिया है या फिर संविधन में कोई संशोधन लागू हो गय है जिससे मर्दों की बोलती बन्द हो गई है...?-ये पढिये अखबार... सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों ने कहा है कि यदि शांति चहते हो तो धर्म पत्नी की बात माननी होगी....!-इसमें भला नई बात क्या हुई......? हर कोई समझदार पुरुष जानता है कि गृह शान्ती के लिऐ गृहमंत्राणी को प्रसन्न रखन जरूरी है । समझदार मर्द की बस यही तो एक मात्र मजबूरी है । और पत्नी है कि पुरुष की समझदरी को कमजोरी समझकर भुनाने लगती है .।शादी के समय पंडित जी भी बेचारे पुरुष को सात बचनों में इस तरह बांध देते हैं कि यदि पुरुष को वे वचन याद रह जाऐं तो आधा तो बेचारा वैसे ही घुट-घुट कर बीमार हो जाऐ । आजादी से सांसे लेने पर भी बेचारे के पहरे लग जाते है।इसीलिऐ हमारे जैसे बुद्धीमान लोग ऐसी दुर्घटनाओं को याद ही नहीं रखते। शायद इसीलिऐ अभी तक श्रीमती के साथ रहते हुऐ भी सभी बीमरियों से मुक्त हैं और शत-प्रतिशत स्वस्थ्य हैं ।अब आप ही बताऐं कि भला सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों को सरे आम ऐसी नाजुक बाते कहने कि क्या जरूरत थी....? उन्हें मालूम होना चहिऐ कि आजकल ऐसी खबरें महिलओं तक जल्दी पहुंचती है ।क्योंकि साक्षारता का प्रतिशत भी तो काफी बढ गया है। वसे भी सुप्रीमो को भल किसी कोर्ट के संरक्षण की क्या जरुरत ......संरक्षण तो हम जैसे निरीह प्राणियों को चाहिऐ........?
अब आगे -आगे देखिये होता है ,
न्याय उनका हो गया रोता है क्या ॥

डॉ.योगेन्द्र मणि

Saturday, May 16, 2009

जय हो......!

जय हो.........!.लोकतन्त्र......!! जय हो .....!!!
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लोकसभा चुनाव के प्रारम्भ में किसी ने नारा लगाया जय हो, तो किसीने गजल के काफिये की तरह कहा भय हो, तो कोई इससे भी चार कदम आगे बढ़ गया और बोला-कै हो.....! अब चुनाव समाप्त होने साथ ही ई.वी.एम. मशीनों में बन्द नतीजे भी सबके सामने हैं ।जिसने सबसे पहले जय हो का नारा लगाया उसकी जय हो गई और भय हो का नारा लगाने वालों को जनता ने नतीजों से भयभीत कर दिया.......।चुनावी नतीजों से यह बात तो स्पष्ट है कि जनता अब नेताओं की बांदी नहीं है कि जिसे नेता अपने हित के लिऐ औजार के रूप में इस्तेमाल कर सकें.....?
चुनाव के पहले कुछ अति उत्साहित कुर्सी भक्तों ने कुर्सी दौ्ड़ में सभी नैतिकताओं को दरकिनार कर सत्ता सुखकी चाह में जनता को गुमराह कर इधर-उधर दौड लगाई लेकिन जनता ने उन्हें सबक सिखाते हुऐ चौराहे पर लकर खडा कर दिया । जहाँ से उन्हें अब सोचने पर मजबूर होना पड रहा होगा कि उन्हें भला बिना सोचे समझे जय हो का नारा छोड कर अलग से ही अपनी खिचडी पकाने की क्या जरूरत थी ।लालू- पासवान की यादवी जुगलबन्दी टांय- टांय फिस्स हो गई....।राम जी ने भय हो के नारों से नाता तोड लिया । उन्हें तो एक मात्र राम जी का ही था जब उन्होंने ही नाता तोड लिया तो ऐसे में राम भक्तों के दिल पर क्या बीत रही है यह तो वे ही बत पायेगें,लेकिन शायद राम जी को भी मालूम हो गया है कि आजकल लोग उसका नाम केवल जनता से वोट के लिऐ ही करते हैं वोट लेने के बाद सब भूल जाते हैं कि मन्दिर कहाँ पर बनना है काश राम जी का नाम वॊट लेने के बाद भी वे ध्यान रखते तो शायद राम जी भी उनका कुछ तो ख्याल रख ही लेते......?अब भैय्या जी से हमने कहा कि अब राम जी कहाँ रहेगें तो वे भी तपाक से बोले- कहीं भी रहें हमें क्या.....? जब उन्हें ही अपने ठिकाने की चिन्ता नहीं है तो हम भी क्यों दुबले हों.....?
चुनाव की घोषणा होते ही जो सत्ता सुख भोग रहे थे उनमें से कुछ ने सोचा कि अब तो हम ही हम हैं , और हम भला किसी से कहाँ कम हैं ।बस फिर क्या था पैर का एक अंगूठा सत्ता की नाव पर रखा और दूसरा पैर लगा जमीन तलाशने.....अब दूसरा पैर रखने की जमीन तो मिली नहीं सत्ता की नाव भी अंगूठे के नीच से खिसकने लगी है।क्योकि इन्होंने सोचा था कि अगर यह नाव डूब गई तो दूसरी नाव में तुरन्त ही छलांग लगा लेगें लेकिन हार री किस्मत बीच में ही धोखा दे गई......!
अडवाणी जी की तो दिल की हसरत दिल में रह गई ,जो तो सही है लेकिन जनता ने रोजाना पैदा हो रहे नये-नये प्रधान मन्त्रियों के अरमानों की भी हत्या कर दी। बेचारे टी वी वाले और समाचार पत्रों वाले भी बडी उम्मीद लगाऐ बैठे थे कि चुनाव के बाद नतीजे आने पर सभी दल अपनी-अपनी ढपली बजाकर पीएम की कुर्सी की सौदे बाजी करेगें तो कम से कम कुछ दिनों का मसाला ही मिलेगा लेकिन जनता ने तो सभी की उम्मीदों पर ही पानी फेर दिया। इसीको कहते हैं लोकतन्त्र......! जहाँ जनता नेताओं की सुविधा से सरकार चुनने को बाध्य नहीं बल्कि अपनी सुविधा के अनुसार अच्छे- बुरे की पहिचान कर अपने विवेक से सही और गलत का स्वयं निर्णय लेने में सक्षम है।कुछ लोग जिन्हें शायद यह भ्रम होने लग था कि वे तो पैदा ही कुर्सी के लिऐ हुऐ हैं इस तरह के लोगों को अब अपनी सोच अवश्य ही बदलनी होगी।

Tuesday, May 5, 2009

मेरी ड्रेस का अब क्या होगा...?
आज सुबह -सुबह श्रीमती जी को न जाने क्या हुआ कि अखबार हाथ में लिऐ हमारे पास आई और बोली- आज का अखबार पढा आपने......! हम चकराऐ - भाग्यवान आज भला ऐसा क्या तूफान आगया जो तुम सुबह-सुबह इतनी परेशान हो रही हो...। वे तपाक से बोली - परेशानी की तो बात ही है जे डी बी गर्ल्स कालेज में इस साल से ड्रेस कोड लागू होगा। हमने कहा - भला इसमें परेशान होने वाली क्या बात है बल्की यह तो अच्छी बात है कि कालेज में ड्रेस कोड लागू होगा ..।हमारी तरफ से उनकी बात को समर्थन नहीं मिलना शायद उन्हें अच्छा नहीं लगा। वे तपाक से बोली-क्या खाक अच्छी बात है ........तुम्हें मालूम है कि हमारी बिटिया ने बडे चाव से दो दर्जन नई ड्रेस सिलवाई थी, अब हो गई न सारी की सारी बेकार.........!हम परेशान भला कालेज जाने के लिऐ दो दर्जन ड्रेस.........?हमने कहा- श्रीमती जी कालेज जाने के लिऐ भला इतनी सारी ड्रेस सिलवाने की क्या जरूरत थी..?-तो आप क्या चाहते हैं कि हमारी बेटी दो जोडी कपडों में ही साल भर निकाल दे...?-भाग्यवान कालेज में लडकियों को हम पढ़्ने के लिऐ भेजते हैं या ड्रेस की नुमायश करने...?-आपकी समझ में ये बातें नहीं आने वाली स्कूल में तो बरसों यह मुई ड्रेस बच्चियों के पीछे पडी ही रहती थी अब कालेज में भी पीछा नही छोड रही है। बच्चियों का भी मन करता है कि थोडा अच्छा पहनें....आखिर हमारी बेटियों के भी तो कुछ अरमान हैं कि नहीं.....। यदि ये कालेज में ही मनपसन्द का नहीं पहिन सकेगी तो भला कब पहनेगीं.......?-देवी जी छात्राऐं कालेज में पढ़्ने के लिऐ जाती हैं या फिर अपनी ड्रेस दिखाने के लिऐ.....? पहिनने ओढ़ने के लिऐ तो सारी जिंदगी पडी है...... कम से कम पढ़्ने के समय , ड्रेस का चक्कर छोड्कर यदि पढ़ाई में ज्यादा ध्यान दिया जाऐ तो बहतर होगा...इन लडकियों के लिऐ भी और उनके मॉ-बाप के लिऐ भी....?-मर्दों को तो बेचारी बच्चियों का क्या पूरी महिला बिरादरी का ही पहिनना ओढ़्ना अच्छा नहीं लगता है......!अब भला मैं इन्हें कैसे समझाऊँ कि कालेज में लडकियां आजकल ऐसे ऐसे कपडे पहिन कर जाती हैं जिसे देखकर कभी कभी लगता है जैसे कि यह कालेज न होकर कोई फैशन शॊ का स्टेज हो.....?जो समृद्ध हैं वे तो अपनी अमीरी का प्रदर्शन करती ही हैं लेकिन मध्यम वर्ग और कमजोर तबके के लोगों के लिऐ अपनी बेटियों की जरूरते पूरी करना कई बार बूते से बाहर हो जाता है जिससे कुछ छात्राओं के मन में हीन भावनाऐं जन्म लेने लगती हैं। ऐसी स्थिति में कालेज स्तर पर भी ड्रेस लागू करने में भला बुराई भी क्या है....! लेकिन फिर भी पसन्द अपनी -अपनी ख्याल अपना- अपना....हम भला क्यों दाल भात में मूसल चन्द बने.....।

Wednesday, April 29, 2009

चुनाव के पहले और चुनाव के बाद

चुनाव के पहले और चुनाव के बाद



चुनाव के पहले और चुनाव के बादअखबार में एक विज्ञापन पर हमारी नजर पडी हम चौंके। बडा अजीब सा विज्ञापन था लिखा था- ‘चुनाव के पहले और चुनाव के बाद’स्थाई ताकत और मजबूती के लिऐ मिले या लिखे ‘खानदानी हकीम तख्ता सिंह’ साथ में पूरा पता और फोन नम्बर भी दिये थे।विज्ञापन पढकर हमें लगा कि जरुर इन हकीम साहब से मिलना ही चाहिऐ। आखिर हकीम साहब का भला चुनाव में मजबूती और ताकत से क्या लेना देना ..?भला ऐसी कौनसी जडी बूटी हो सकती है जिससे चुनाव में ताकत आ जाऐगी। हमसे अपने कदम नहीं रोके गये और पहुच गये हकीम साहब के शफाखाने पर......।वहाँ हमने देखा कि कुछ नेता टाइप लोग लम्बा कुर्ता पहिने पहले से ही अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे।हमनें भी वहाँ बैठे एक श्रीमान जी को अपना नाम लिखाया और अपनी बारी के इंतजर में बैठ गये। हमने देखा कि वहाँ पहले से मौजूद लोग एक-एक करके अपनी बारी आने पर अंदर जाते और हकीम साहब के पास से हाथों में कुछ पुडिया का पैकेट लेकर प्रसन्न मुद्रा में सीना फुलाकर बाहर निकलते मानो कि चुनाव के सबसे बडे पहलवान वे ही हॊं और उनके सामने सभी चींटी के बराबर ही हैं। हम इतमिनान से उनके चेहरों को पढ़ रहे थे। जब भी कोई व्यक्ति अन्दर जाता तो मुँह लटकाऐ,ढ़ीला -ढ़ाला सा अनदर जाता था लेकिन बाहर निकलते समय अजीब सा आत्मवि्श्वास और चेहरे पर नई चमक लिऐ हुऐ ही बाहर निकल रहा था।ऐसा लगता था जैसे चुना आयोग से नियुक्ति पत्र ही मिल गया हो। हमारी बारी आई तो हमने जैसे ही हकीम साहब के कक्ष मेंप्रवेश किया तो सामने भैय्या जी को देख कर हम चौकें और न चाहते हुऐ भी मुँह से निकल ही गया-अरे भैय्या जी आप और यहाँ.....हकीम तख्ता सिंह..... आखिर माजरा क्या है.........? वे तुरन्त हमारे मुँह पर हा्थ रखते हुऐ बोले -धीरे बोलिऐ कोई सुन लेगा तो सब करा धरा चौपट हो जाऐगा.......!मैने उन्हें आश्वस्त किया कि अब बाहर कोई नहीं है मैं आजका आपका अन्तिम फौकट का ग्राहक हूँ।आखिर ये माजरा क्याहै.....? आप अचानक भैय्या जी से हकीम तख्ता सिंह कैसे बन गये......?नेताओं में ताकत और मजबूती की दवा का नुस्खा आखिर आपको कहाँ से मिल गया.....? भैय्या जी बडे ही सहज भाव में बोले-नुस्खा-वुस्खा कुछ नहीं है बस यूँ ही पापी पेट का सवाल है......बस..।हम कुछ समझ नहीं पा रहे थे। हमने वहाँ रखे कुछ पारादर्शी डिब्बों की तरफ इशारा करते हुऐ उनसे पूछा- इन डब्बों में रंग बिरंगा पाउडर जो भरा है ,यह सब क्या है.....?वे सर खुजलाते हुऐ बोले - आप भी क्यों पीछे पडे हैं भला .....इनमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो लोगों के स्वास्थ पर बुरा असर दिखाऐ ।हकीकत तो ये है कि समाचार पत्रों में रोजाना आरहा था कि अमुक नेता कमजोर है .फलां उम्मीदवार कमजोर है ,प्रधान मन्त्री तक कमजोर माने जा रहें हैं इसलिऐ मैंने सोचा क्यों न ऐसी इजाद की जाऐ जिससे कोई भी इस चुनाव में अपने आपको कमजोर महसूस नहीं करे, बस ....।यही सोच कर कुछ दवा मैनें बनाई है। इन पारदर्शी डब्बों में भ्रष्टाचार, झूंठ, मक्कारी और बेहयाईपन का सत्व हमने इकट्ठा किया है जिसके सेवन से ईमानदार से ईमानदार नेता में भी नेतागिरी के वास्तविक गुण आजाते हैं। जिससे वह बिना शर्म्रोहया के चुनाव लड सकता है। चुनाव जीतने के बाद पता नहीं उसे शायद उन्हीं लोगों के साथ मिलकर सरकार में बैठना पड जाऐ जिनको आज वह जी खोल कर गालियां दे रहा है। आखिर ये लोग कुर्सी के लिऐ ही तो यह सब कर रहे हैं ।यदि इनमें नैतिकता का अंश बाकी रह जायेगा तो फिर भला सरकार कैसे बनाऐगें। भैय्या जी की बात भी सही है। तभी तो कल तक किसके किसीके साथ कैसे सम्बन्ध थे वे सब इतिहास की बाते हो गई है। और आज फिर एक नई समीकरण बन रही है। चुनाव के बाद की क्या समीकरण होगी वह तो चुनाव के बाद ही पता लगेगा कि कौन किसको गले लगाता है और कौन अपने चुनावी वादों पर कायम रह पाता है....यह तो वक्त ही बतायेगा....?

Saturday, April 25, 2009

दिल है कि मानता नहीं

चुनावी मौसम का मतलब ही होता है कि भाषणों का मौसम.....!कोई जोशीले अन्दाज में भाषण देता है तो कोई हाथ जोडकर। गुर्जरों को आरक्षण दिलाने का भाषण देकर पिछली बार भाजपा ने राज्य में सरकार बना ली थी और बाद में भुल गऐ। लेकिन गुर्जर समाज नहीं भूल पाया जिसका दु्ष्परिणाम यह रहा कि गुर्जरों को सत्तर जनों की बलि देनी पडी। आन्दोलन के अगुवा ही अब खुद उसी पार्टी में जा मिले हैंजिस पार्टी के विरोध का नाटक लम्बे समय तक चलाया गया था।अबकी बार फिर कुछ नेता जाति के आधार पर आरक्षण के लिऐ लम्बे-लम्बे भाषणों से जनता को लुभाने का काम कर रहें हैं। कोई सवर्णों को आरक्षण का झनझुना दिखा रहा है तो कोईजाति विशेष में आरक्षण का जहर पुनः बो रहा है।देश के इन नेताओं को न जाने कब समझ आयेगी जो हर बार नया शगूफा छोड कर जनता में जाति का जहर बो देते हैं ।और जब जनता इन्हें इनके वादे याद दिलाने की कोशिश कराती है तो ये कान में तेल डालकर बैठ जाते हैं। तभी तो आजकल जनता जूते दिखाकर अपना आक्रोश प्रकट करने लगी है। लेकिन ये तो बस दिल है कि मानता नहीं .....आखिर नेता जी जो ठहरे........!______________________________________________________________________________________
गृह विहीन गृह मन्त्री





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हमारे देश के नेताओं का भी अजब आलम है। उनके पास वैसे सम्पत्ति करोडों की मिल जायेगी लेकिन किसी के पास दुपहिय नहीं है तो किसी के पास चार पहियों की गाडी नहीं है । भले ही चार- चार वाहन दरवाजे के बाहर हर समय खडे रहते हों।आजतक किसीने इन जनसेवकों को टेम्पो या ऑटो में सफर करते भी नहीं देखा होगा।कुछ तो इससे भी चार कदम आगे हैं । पूरे देश के हर एक व्यक्ति को घर दिलाने का वादा करेगें और स्वयं के पास दस बाई दस फिट का कहीं एक घर भी नहीं मिलेगा। ओर किसी की तो हम क्या कहें ,हमारे गृहमन्त्री जी आज तक गृह विहीन ही हैं। जबकि भाषण देते हैं सबको घर मुहैया कराने का.......!भैय्या जी को जब मालूम हुआ कि गृह मन्त्री जी ही गृह विहीन हैं तो बोले -सभी को घर के सपने दिखाते हैं तो भला खुद के लिऐ को घर क्यों नहीं बनवा लेते.....?मगर दुसरा सच ये है कि इन नेताओं को खुद के खर्च पर घर बनवाने की भला क्या जरूरत है।ये तो जनता के खून पसीने से बने बडे बडे बंगलों में मुफ्त में ही जिन्दगी गुजार देते हैं जिसका नल और बिजली का बिल तक जनता ही भरती है।इन्हें तो घर बनाना भी होता है तो काले सफेद सभी धन को मिलाकर घर के ही अन्य लोगों के ही नाम से घर बनायेगें ताकि जनता की निगाहों में तो फिर भी सफेद पोश घर विहीन ही रहेगें बेचारे जन सेवक जी.......?

Thursday, April 23, 2009

महारानी जी घर आई हो राम जी


मेडम रूठे हुऐ नेता जी को मनाने उनके घर पहुँचीतो नेता जी का पूरा परिवार ही मेडम के स्वागत के लिऐ तैयार था। मालाऐं पहिनाई गई ,छाछ पिलाई, मिठाई भी खिलाई। सभी प्रसन्न.....। खास तौर से नेता जी और मेडम यानि कि महारानी जी.....।सभी की बाँछे खिली थी।प्रसन्नता होनी भी चाहिऐ....राजस्थान की महान हस्ति जो पधारी थी, नेता जी को वापस घर बुलाने के लिऐ और उनका साथ माँगने के लिऐ......? घर के सदस्यों की खुशी से ऐसा लग रहा था जैसे हर कोई गुनगुना रहा हो -महारानी जी घर आई हो राम जी.......!
एसे में जुम्मन चाचा ने चाय की चुस्की लेते हुऐ भैय्या जी को छेडते हुऐ कहा-कल तक महारानी जी को पानी पी-पीकर कोसने वाले नेताजी अचानक महारानी जी की शरण में कैसे आ गये...? भैय्या जी तपाक से बॊले-नेता जी महारानी जी की शरण में नहीं आऐ हैं वो तो स्वयं ही आई थी नेता जी के द्वार पर....।जुम्मन चाचा बोले-बात तो एक ही हुई....ये गये या वो आई, क्या फर्क पडता है........?
--फर्क कैसे नहीं पडता है....? अभी जरूरत तो उन्हीं को है न अपने बेटे के लिऐ......और पार्टी की साख बचाऐ रखने के लिऐ ।नेता जी का क्या वे तो आराम से बैठे थे.......?
_भैय्या जी हकीकत तो ये है कि जरूरत तो नेता जी को भी थी.....। उन्हें तो जमीन पर पैर रखने की भी जगह नहीं दिख रही थी। वह तो किस्मत अच्छी थी जो वे ही आगे होकर आ गई।वरना कॉग्रेस ने तो आयना दिखा ही दिया था......। ऐन समय पर उन्हें चोराहे पर लाकर खडा कर दिया....आखिर जाते भी तो कहाँ जाते नेता जी .....?
--आप भी जुम्मन चाचा क्या बात करते हो ....हमारे नेता जी आखिर गुर्जर समाज के नेता हैं ।
-शायद समाज की उसी नेतागिरी को भुनाने की कोशिश में लगे थे नेताजी.......! तभी तो समाज के नाम पर हीरो बने एक नेता जी ने तो पहले ही भाजपा से टिकिट ले ही लिया अब ये भी कुछ पुरुस्कार पाने की उम्मीद में वापस आ गये शायद......? इन्हें लगता है कि इनके समाज की याद्‍दास्त बहुत कमजोर है शायद इसीलिऐ आरक्षण के नाम पर सैंकडों नारियों की मांग से सिन्दूर पौछने वालों के ही साथ आज ये वापस कन्धे से कन्धा मिलाकर खडे हैं।उन विधवाओं का सामना करने में इनके पैर नहीं डगमगाऐगें क्या......?
--जुम्मन चाचा ये राजनीति है इसमें काहे की शर्म......!हमारे नेता जी ने तो कह दिया है कि राजनीति में कोई व्यक्तिगत दुश्मन नहीं होता.....।अब तुम अपने ही घर को ले लो पिछले साल जब तुम्हारा बेटा तुमसे नाराज होकर चला गया था घर से निकल कर ,तब तुम भी उसे मना कर वापस घर लेकर आये थे कि नहीं......?अब पार्टी भी तो इनका घर ही है उन्होंने मनाया और ये मान गये बस बात खत्म......!काहे को जरा सी बात को लम्बी किये जा रहे हो तुम भी......?
वैसे बात भी सही है वे रूंठे मनाये हमें क्या लेकिन जो बच्चे इनकी राजनैतिक रोटियों के चक्कर में अनाथ हो गये.......जिनका सुहाग उजड गया......जिन बहिनों के हाथ की राखियां हमेशा के लिऐ उनके हाथों में ही रह गई उनक भला इनकी राजनीति से क्या लेना देना था....?इन सब सवालों का जबाब तो इन्हें देना ही चाहिऐ...........?
डॉ. योगेन्द्र मणि

Tuesday, April 7, 2009

मातृ भाषा दिवस

मातृ भाषा दिवस
एक दिन सुबह सुबह समाचार पत्र से मालूम हुआ कि आज विश्व मातृ भाषा दिवस है।कुछ दिनॊं पहले भी न जाने कौन सा दिवस निकला था पता नहीं। देखा जाऐ तो कभी भी कोई भी विशेष दिवस आ सकता है। वो तो भल हो मीडिया का जो कम से कम मालूम तो पड ही जाता है कि आज कौन सा दिवस मनाना है। वरना हमें तो मालूम ही न चले कि आज कौन सा दिवस पैदा होने वाला है। कभी फादर डे,तो कभी मदर डॆ और अब मदर टंग डे....।कैसा जमाना आ गया है कि आज हमें मातृ भाषा को जीवित रखने के लिऐ भी विशेष दिन का चयन करना पड रहा है।
भैय्या जी ने भी शायद कहीं पढ़ लिया था कि आज मातृ भाषा दिवस है। तभी तो उन्होंने जुम्मन चाचा से पूछ ही लिया - जुम्मन मियां -आपको पता है कि मातृ भाषा दिवस हम क्यॊं मनाते हैं...? अब जुम्मन चाचा अचरज में ....फिर भी शब्दों की जुगाली करते हुऐ बोले-भय्या जी जब किसी पर शामत आती है तो अच्छे-अच्छों को मैय्या और मैय्या की भाषा दोनों ही याद आ जाती हैं।भैय्या जी गम्भीर होते हुऐ बोले -यह मजाक का विषय नहीम है जरा गम्भीरता से बताओ..।जुम्मन चचा बोले- मुझे तो लगता है कि आजकल पढ़ेलिखे लोग अपनी मातृ भाषा भूल न जाऐं इसलिऐ शायाद उसकी याद को ताजा बनाऐ रखने के लिऐ एक दिन तय कर रखा होगा इन्होंनें और क्या....?भैय्या जी मुँह फाडे जुम्मन चाचा की बात समझने का प्रयास कर ही रहे थे कि वे आगे बोले-भैय्या जी विदेशों में किसी को भला कहाँ फुरसत है किसी कॊ याद रखने की या मिलने जुलने की ।इसलिऐ उन्होंने इसका अच्छा तरीका निकाला है कि साल भर भले ही किसी को गालियां देते रहो मगर एक दिन जरूर उसे सम्मान दे दो.....तभी तो कभी माँ का दिन, कभी बाप का दिन,कभी प्रेमिका का तो कभी दोस्त का दिन ......।अब आप ही बताइऐ यदि माँ -बाप, भाई- बहिन ,,दोस्त ,सभी को यदि भूला ही न जाऐ तो भला हर साल याद करने के लिऐ एक दिन निश्चित करने की क्या जरूरत रह जाती है?
इसपर भैय्या जी बोले-कुछ बरस पहले तक होली दिवाली के साथ अंग्रेजी का बॊझ कम करने के नाम पर हिन्दी दिवस शुरू किया गया था लेकिन जितने ज्यादा हम हिन्दी दिवस मनाते गये अंग्रेजी उतनी ही ज्यादा हमारे सिर पर सवार होती गई।
अब देखा जाऐ तो उनकी बात भी सही है।एक ओर तो हम मातृ भाषा का राग अलापते हैं वहीं दूसरी ओर हम अपने बच्चों को अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में पढ़ाने पर फक्र महसूस करते हैं। आने वाली नस्ल को तो सही ढ़ंग से यह तक मालूम नहीं है कि हमारी मातृ भाषा हिन्दी है या अंग्रेजी.....? क्योकि उनकी शिक्षा तो अंग्रेजी माध्यम से ही हुई है।ईमानदारी की बात तो यह है कि आजकल मशीनी दौड़ में मातृ भाषा का राग केवल सरकारी आंकडों के लिऐ ही रह गया है।
आज हम ऐसे चौराहे पर खड़े हैं जहाँ राजस्थान के लोगों को राजस्थान में ही उनकी मातृ भाषा, राजस्थानी के लिऐ संघर्ष करना पड रहा है लेकिन दूसरी ओर वही राजस्थानी अमेरीका के व्हाइट हाउस में भी प्रवेश कर गई है।अब भला यह कैसा मातृ भाषा दिवस......?सरकारी गैर सरकारी स्तर पर साहित्यिक चर्चा-परिचर्चा कर खाना पूर्ती की और हो गया मातृ भाषा दिवस......दो चार लेख छप गये आखबारॊं में फोटो आगई बस हमें भी और क्या चाहिये शेष अगले बरस..........॥
डॉ.योगेन्द्र मणि

Sunday, April 5, 2009

जनता की छाती पर बोझ

जनता की छाती पर बोझ
दिन भर इधर उधर से भटकने के बाद शाम को हम जैसे ही घर में घुसे,श्रीमती जी ने तुरन्त सवाल दागा -सुनते हो ,ये चुनाव क्यों होते हैं. ?
हम चौके-भाग्यवान,तुम्हारी तबीयत तो ठीक है। वे तपाक से बोली- वो सब ठीक है आप तो मेरी बात का सीधा सा जबाब दीजिऐगा। अब भला ऐसी लाजबाब बात का हम क्या जबाब दें कुछ समझ नहीं आया फिर भी हम बोले _ सरकार बनाने के लिऐ।।उन्होंने फिर सवाल दागा - संसद में जा कर ये लोग करत क्या हैं?हमने उनकी मोटी बुध्दी के अनुसार मोटे तरीके से समझाया-- करेगें क्या भला सरकार चलाते हैं ,और जो सरकार के बाहर रह जाते है वे सरकार की टांग खीचते हैं ताकि सरकार में बैठे लोगों की चाल सीधी बनी रहे ।
श्रीमती जी को मेरी बात समझ में तो शायद आ गई थी लेकिन समझना नहीं चाह रही थी,बोली-आप भी क्या बच्चों जैसी बातें कर रहे हो।आपको मालूम है देश के कर्ण्धार कहलाने वाले ये सांसद घर बैठे ही जनता की गाढ़ी कमाई पर ऐश करने का काम ही करते हैं बस.....?हम चकराऐ- धीरे बोलो भाग्यवान कोई सांसद सुन लेगा तो हमारा जीना दूभर हि ओ जाऐगा।तुम्हें मालूम है आजकल सांसदों में भी हर वैराइटी के लोग मिल जाऐगें।
मगर श्रीमती जी कहाँ मानने वाली थी बोली- तुम्हें मालूम है पिछले साल तुम्हारे लाडले की कॉलेज में उपस्थिती कम रह गई थी तो उसे परीक्षा में बैठने से रोक दिया था। हम बड़बडाऐ -भाग्यवान कॉलेज और संसद का भला क्या तालमेल.....? वे तपाक से बोली-ये सांसद लाखों रुपये हर माह वेतन और भत्तों के नाम पर लेते हैं मगर संसद में जनता की बात कहने के नाम पर नदारद ही रहते हैं तो फिर इन्हें वेतन और भत्तों का भुगतान भला क्यॊं......?जनता ने क्या उनसे कोई कर्ज ले रखा है?
सारा माजरा अब हमारी समझ में आया। श्रीमती जी ने शायद अखबार में वह रिपोर्ट पढ़ ली थी जिसमें लिखा था कि अधिकांश सांसद पाँच वर्ष में पच्चीस प्रतिशत भी उपस्थिती दर्ज नहीं करा सके। बहुत गिनती के ही सांसद ऐसे थे जिनकी उपस्थिती पचास प्रतिशत से अधिक रही होगी।कुछ तो ऐसे भी है जिन्होंने पूरे कार्यकाल में पाँच प्रश्न भी नहीं पूछे....?फिर भी सबको वेतन भत्ते बराबर....उनमें कहीं कोई कटोती नहीं जबकी आम मजदूर के लिऐ कहा जाता है कि काम नहीं तो वेतन नहीं....।
आखिर हम ऐसे सांसदों कॊ ढ़ो क्यों रहे हैं..........?ये किसका भला कर रहे हैं देश का ,समाज का, या स्वंम अपना और अपने परिवार का.....?क्यों न ऐसे जनता पर बोझ बने सांसदों से संसद को मुक्त कराकर ऐसे लोगों को चुनें जो आपकी और हमारी बात को समझ सके और कह सके..........!
डॉ.योगेन्द्र मणि

Tuesday, March 31, 2009

तलाश है घटती मंहगाई की


तलाश है घटती मंहगाई की---- -- - -?

जुम्मन चाचा कल सुबह-सुबह दूध वाले से उलझ गये-क्यों भैय्या जी बेवकूफ समझा है क्या? मुफ्त में चूना लगा रहे हो।मंहगाई दिन-ब -दिन घट रही है और तुम हो कि दूध के दाम बढ़ाऐ जा रहे हो......?दूध वाला बार- बार समझा रहा था कि चाचा तुम्हें किसीने गलत बताया है सभी चीजें तो मंहगी हो रही है,लेकिन जुम्मन चाह्चा हाथ में अखबार लेऐ अड़े थे। उनकी इस खीचा तानी के बीच टांग फसाते हुऐ हमने कहा-जुम्मन चाचा आखिर माजरा क्या है जो सुबह -सुबह उलझ रहे हो ।जुम्मन चाचा बोले- आप ही बताइऐ अखबार में लिखा है कि पिछले सात महीने में मंहगाई 12.63 से घटकर 0.27 रह गई है पर ये हैं कि मानने को ही तैयार नहीं है। सात महीने में तीन बार दूध के दाम बढ़ा दिये ।आखिर कहाँ गई मंहगाई ?
बात भी सही है सरकर भल क्यों झूट बोलेगी। सरकार भले ही झूट बोल भी जाऐ पर आंकड़े तो कहीं पर टिके ही होगें ।इस बीच भैय्या जी भी प्रकट हो गये, बोले-किराने वाला लाला हर महीने बस ला-- ला ही करता रहता है। महीने का बजट है कि जेब में समाता ही नहीं । हर महीने जेब से बाहर छलांग लगाने की कोशिश करता रहता है।लेकिन अखबारी आंकड़े कह रहे है कि पिछले तैतीस सालों में मंहगाई की दर इतनी घटी है। अब घटी हुई मंहगाई किसकी जेब खा गई ,समझ नहीं आ रहा है। क्यों भाई जुम्मन चाचा तुम्हारी जेब में तो नहीं चली गई सारी मंहगाई ?
जुम्मन चाचा तुरन्त फट पडे-सारी मंहगाई तो लगता है यह दूधवाला ही बराबर कर देगा ।यही बात मैं कितनी देर से इस दूधवाले को समझा रहा हूँ कि जब मंहगाई घट रही है तो तेरा दूध मंहगा क्यों....?मगर नहीं साहब यह अडा है कि दूध की रेट तो बढ़ानी ही पडेगी।
अब दूध वाला बेचारा निरीह प्राणी की तरह फंसा था । धीरे से बडबडाया-अखबर में मंहगाई कं हो गई है तो दूध भी अखबार से ही क्यों नहीं लेते जुम्मन चाचा, मेरी भैंस के पेट पर क्यों लात मार रहे हो-----? तुम्हें क्या पता मेरी भैस के पेट के साथ मेरे परिवार के पाँच पेट भी जुड़े हुऐ हैं।मैं तो फिर भी मेरे बच्चों के पेट पर पट्टी बांध लूंगा मगर भैंस का पेट नहीं भरा तो दूध क्या अखबार निचोड कर निकलेगा ?
दूध वाले का कहना भी सही है।जब आम आदमी की जेब का सुराग बढ़ता जा रहा है तो घटी हुई मंहगाई गई किसकी जेब में आखिर---? लगता है इस घटी हुई मंहगाई की खोजबीन करनी ही होगी आकिर घटी मंहगाई गई तो गई कहाँ----?
भैय्या जी और जुम्मन चाचा को एक तरफ छोड भी दें तो भि सवल तो वहीं का वहीं है । हमारे घर की ले लो। श्रीमती को भी अखबर की खबर की भनक न जाने कहाँ से लग गई रात को बडा ही स्वादिष्ट भोजन खाने को मिला । खना खाते समय ही मै समझ गया हो न हो जरूर कोई संकट आने वाला है। खाना परोसने के बीच में ही घीर से बात सरकाते हुऐ बोली सुनने हो ---? मैं सतर्क होते हुऐ बोला -भाग्यवान कैसी बातें करती हो पच्चीस साल से तुमहारी ही तो सुन रहा हूँ ।भला तुम्हारे अलावा और किसी कि हिम्मत है जो मुझे सुना सके -- ?
वे थोड़ा तुनकते हुऐ बोली -बस फिर वही पुराना राग। मै कह रही थी कि अब तोसुना है मंहगाई घट रही है क्यों न दस -बीस साडियां ही ले आऐं।
अब हमारे तो गले में ही टुकड़ा अटक गया ।क्या जबाब दें भला--- ?उन्हें समझाना भी बडी टेढी खीर है क्योंकि सारा जहान समझ जाऐ मगर श्रीमती को समझना ठीक ऐसा ही है जैसे परीक्षा में कोर्स के बाहर का कोई सवाल। और सवाल भी ऐसा जिसे मैं हमेशा हल करने में फेल ही रहता हूँ।अब मुझे तो लगता है कि घटी हुई मंहगाई मुझे और आपको मिले या न मिले मगर साडी वाले की जेब मे जरूर ही हमारी जेब की महंगाई का कुछ हिस्सा जरूर ही मिल जाएगा----- या आपके पास यदि आऐ तो मुझे भी इस घटी हुई मंहगाई का दर्शन जरुर करवा देना । मैं भी तो देखूं कि आखिर घटी हुई मंहगाई की फोटो कैसी है----
डॉ. योगेन्द्र मणि

Monday, March 23, 2009

करंट ........बिना बिजली के

करंट ........बिना बिजली के
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सुबह-सुबह भैय्या जी का फ्यूज बल्ब सा चेहरा देख के हम चौंके ।हमेशा चहचहाने वाले भैय्या जी ने आज भला किसका मूँह देख लिया जो लुटे- पिटे से नजर आ रहे हैं।इससे पहले कि हम कुछ पूछते वे चालू हो गये-क्या बतायें साहब गाँव से हमारा भतीजा बिजली का बिल लेकर आया है कहता है कुछ करो....समझ नहीं आता क्या करें ,कैसे करें ...?हमने तपाक से कहा इसमें सोचना क्या है, बिल आया है तो दफ्तर में जा कर जमा करवाओ बस आसान सा रास्ता है।हमारे इतना कहते ही वे उखड़ गये-क्यों करवा दें बिल जमा ...आखिर हमने किसी का क्या बिगाड़ा है जो बिना बात ही बिल जमा करवाऐं...?
हम चकराये,हमने समझाते हुऐ कहा -भैय्या जी आप भी कैसी बच्चॊं जैसी बातें करते हो ।बिल जमा नहीं कराना अच्छी बात नहीं है।अब जब हम बिजली का उपयोग करते हैं तो बिल तो देना ही होगा ।वह एक अलग बात है कि यदि कहीं कोई गलती है बिल में तो उसकी शिकायत की जा सकती है लेकिन यह क्या,कि बिल ही जमा नहीं करेगें ।लेकिन भैय्या जी हैं तो ओर तैश में आ गये-_क्यॊं करायें बिल जमा ।जब लाइट ही नहीं जलाई ...? अभी तो घर में लाइट लगी ही नहीं फिर भला लाइट का बिल कैसा...?
अब हमें सारा माजरा समझ में आया कि भैय्या जी का चेहरा क्यों फूला हुआ है।लेकिन आश्चर्य की बात तो यह थी कि बिना लाइट कनेक्शन के ही बिल ..?बात कुछ हजम होने वाली भी नहीं है ।तभी पास ही बैठे जुम्मन चाचा ने उन्हें शांत करते हुऐ बताया-हम बताते हैं आपको..हुआ ये कि गलती से इनके भाईसाहब ने राजीव गाँधी विद्युतिकरण योजना में निशुल्क कनेक्शन के लिऐ फार्म भर दिया था जो आज इनके गले की हड्डी बन गया है।इधर इन्होंने आवेदन किया कि विद्युत विभाग ने लाइट कनेक्शन के स्थान पर बिल पहले थमा दिया कनेक्शन शायद बाद में देगें ।आखिर मार्च का महीना है...वसूली जॊ दिखानी है...?
धन्य है राजस्थान का विद्युत विभाग ...क्या फुर्ती है ।अब कोई भला कैसे कह सकता है कि सरकारी काम धीरे-धीरे होते हैं।इतनी तेज रफ्तार से तो लालू जी की रेल भी नहीं भागती होगी और न ही हिन्दुस्तान की मंहगाई ही इस रफ्तार से दौड़ पाई होगी...?गाँवों तक में इतनी फुर्ती से बिल बांटना...भई कमाल कर दिया ..? हाँ यह अलग बात है कि शहरी क्षेत्र में भले ही लोगों को बिल जमा कराने की आखरी तारीख तक भी बिल का इंतजार करना पड़ता है।
हमने भैय्याजी से पूछा-बिजली का तार ,मीटर आदि कुछ तो लगा गये होंगे लाइट वाले...?बोले -हाँ...तार और मीटर लटका है बस ...लेकिन उससे क्या.......केवल तार लटकने से ही घर में उजाला हो जाता है क्या...?
अब हम उन्हें कैसे समझते कि भैय्या ये सरकारी काम है ऐसा ही होता है।बिजली का तार भी लगा है मीटर भी लगा है ..बस यही तो करना था उन्हें ..अब तुम्हारे तार में करंट आता है या नहीं उससे भला किसी को क्या लेना देना....मीटर लगा और हो गया मीटर चालू...।उन्हें मालूम है कि खंबे से तो जिसे लाइट जलानी है वैसे ही जोड़ लेगा ,दिन में नहीं तो रात को जोड लेता होगा ....इसलिऐ कर लो वसूली....?वैसे भी यदि उन्होंने खंबे से लाइट का कनेक्शन जोड भी दिया तो भी क्या गारंटी है कि उससे तुम्हारा घर रोशनी से जगमगा जाऐगा। कनेक्शन चालू करने के बाद भी यदि लाइट नेता जी की ही तरह कभी -कभी ही दर्शन देगी तो भी कोई क्या कर लेगा क्यॊंकि गाँवों में लाइट के चरित्र से सभी अच्छी तरह से वाकिफ हैं।
गावों में लाइट के करंट का, और नेता के वादे का भला क्या एतबार...?आया-तो आया...और नहीं आया तो नहीं आया....?हाँ बिल ऐसी गुस्ताखी नहीं करेगा उसे तो आना ही है इसलिऐ आयेगा ही...और वह भी नियत समय पर गरीब के घर बिन बुलाऐ बीमारी की तरह.......।बस फिर पूरी जिंदगी यूँ ही गुजारते रहो बिजली के झटके खा- खा कर.....।
अब आप ही बताइऐ जब बिजली के दर्शन की तैयारी मात्र से झटके आने लगते हैं तो भला करंट चालू हो जाऐगा तो क्या होगा.....अब इस हकीकत का हम भी क्या करें
गाँव में खंबे तलक बिजली के लगे ही नहीं
उनके रहमो-करम से बिजली का बिल आयाहै॥

डॉ.योगेन्द्र मणि

Thursday, March 19, 2009

आचार संहिता

आचार संहिता
आजकल जहाँ भी जाओ सरकारी दफ्तरों में मायूसी सी छाई लगती है। वैसे तो सरकारी दफ्तर अपनी कार्य शैली के लिऐ सभी जगह प्रसिध्द है। वह दफ्तर जहाँ हर कार्य सरकते -सरकते अपने लक्ष्य तक पहुँचने की कोशिश करता है वास्तव में सरकारी दफ्तर कहलाने का हक रखता है।अब दफ्तर तो दफ्तर है वह चाहे नगर निगम का हो, पंचायत समिती का हो ,या कि फिर कलेक्टर का ही क्यों न हो । क्योंकि यहाँ सब काम नियम और कायदे कानून को ध्यान में रखकर किये जाते हैं।
अभी चुनाव का मौसम है। और वह भी लोकसभा चुनाव सर पर हैं ।सभी पर चुनाव का भूत सवार है। राजनीतिक लोगों के सर पर तो चुनाव का भूत सवार रहता ही है ,लेकिन सरकारी अफसरॊं को अपनी अफसरी का असली मजा अभी आता है।आचार संहिता के मौसम में अफसर सर्वगुण तथा सर्वाधिकार सम्पन्न होता है ।वरना बेचारा हर समय एक टेम्परेरी जनसेवक के सामने हाथ बांध कर जुबान पर ताला लगाये चुपचाप खडा रहता है ।कई बार तो स्थिती ऐसी आजाती है कि जनसेवक महाशय जनता में अपना झंडा गाडने की कोशिश में जब चाहे सरकारी अधिकारी की खाट खडी करने पर तुले रहते हैं।लेकिन इस सारे झमेले में जिस जनता के लिऐ सारी उठा -पटक की जाती है सबसे ज्यादा भुगतना उसी जनता को पडता है।
अब भैय्याजी साल भर से परेशान है उन्हॊंने ईमानदारी से एक रजिस्ट्री शुदा प्लाट पर मकान बनाने का सपना सजोंकर मकान का नक्शा, दफ्तर में जमा करवा दिया इस उम्मीद से कि नियमानुसार निर्माण की इजाजत लेकर ही मकान बनाऐगें।अब पहले तो बाबु सहब जी को फाइल देखने का समय नहीं मिला ।फिर फाइल सरकी ही थी कि आचार सहिंता नामक,कोई ब्रेकर आगया उनका कहना था कि विधान सभा चुनाव है।चुनाव के बाद साहब जी नई सरकार के हिसाब से अपने आप को फिट करने में लगे रहे। और अब फिर एक बार दूसरे बडे चुनाव यानि लोकसभा के चुनाव की आचार संहिता लग गई इसलिऐ काम बंद, फाइल बंद भैय्याजी का मकान बंद।हम जैसे समझदार लोगों ने उन्हें पहले ही समझाया था कि भैय्या जी परमीशन के चक्कर में मत पडो,जैसे मरजी आऐ बनो लो लेकिन नहीं साहब हम देश के सच्चे नागरिक हैं नियाम से ही कार्य करेंगें ।अब करो नियम से ,आचार संहिता ने भी तुम्हारी हसरत पूरी कर दी।अब इनके ऊपर पहुँचने से पहले इनकी फाइल ऊपर पहुँच जाये तो खुदा का शुक्र मनाना चाहिये।
नलों में पानी नहीं आ रहा-जाबाब है आचार संहिता लगी है ।चोर उचक्के दिन दहाडे हाथ साफ कर जाते हैं -या कुछ भी कहो ,एक ही जबाब है-क्या करें आचार संहिता लगी है।विधवा की पेंशन छः माह से नहीं मिल रही -एक ही राग है -क्या करें आचार संहिता लगी है ?कलेक्टर साहब का फरमान है कि आचार संहिता में कोई भी आवश्यक कार्य बंद नहीं है ।लेकिन आचार संहिता तो आचार संहिता ही है भला उसका उलंघन कोई कैसे कर सकता है।सरकारी हाकिम तो कदापि नहीं।
मेरी समझ में नहीं आता कि यह आचार संहिता है या कि काम रोको आदेश।जहाँ तक मेरी मोटी बुद्धी की समझ है आचार संहिता का मतलब है नियमानुसार कार्य करना।या इसे यूँ कह सकते है कि एक निश्चित नियमावली के अंतर्गत आचरण करना ।अब देखा जाऐ तो हमेशा ही सरकारी दफ्तरों में कार्य शायद नियमों के अनुसार ही होता होगा।फिर आज ही बात -बात पर आचार संहिता बगार लगाने की क्या आवश्यकता आ जाती है ।
सड़कों पर गाय भैस दौड लगा रही है नगर निगम वाले भैय्या से बोलो कहेगा आचार संहिता लगी है क्या करें।राजनीती वाले भैय्या अपनी लंगोटी संभालने में लगे हैं कहते है अभी बात मत करो चुनाव हो जाने दो बस यदि हमारी सरकार आ गई तो हम तो हम इन सबकी ऐसी तैसी कर देगें लेकिन अभी सरकारी अधिकारी के हाथ में आचार सहित संहिता का ड़ंडा है। इस डंडे से फिलहाल ज्यादा नहीं तो थोडा ही सही दबना तो पड़ता ही है।वैसे चुनाव ने बाद हम सब देख लेगें।
आचार संहिता का लोगों को कुछ लाभ भी मिलता है।आचार संहिता के मौसम को कुछ लोग भूमि पर अतिक्रमण करने का सबसे अच्छा मौसम मानते हैं।जहा मरजी आया पत्थर डाल दिये और हो गया कब्जा जमीन पर अपना । क्योंकि भूमाफिया जानते हैं कि फिलहाल उन्हें कोई रोकने वाला नहीं है।जहाँ तक फैल-पसर सकॊ कब्जा जमाओ,बाद में सरकार किसी की भी हो सब देख लेगें । क्योंकि इनका क्या गंगा गये गंगाराम और जमना गये जमना दास।
अब भला हम भी क्या कहें आचार संहिता जो लगी है ।न जाने कब हम पर भी आचार संहिता लागू हो जाये।क्योंकि जब से आचार संहिता की धूम हो रही रही है तब से ही हमारी श्रीमती जी को अजब रट लग गई है।कल सुबह -सुबह बोली- सुनते हो बाजार में एक नया अचार आया है आपने बताया नहीं ।हम चकराऐ-भागयवान किस अचार की बात कर रही रही हो।वह तपाक से बोली _लो कर लो बात ,तुम्हें नहीं मालूम,अभी लेटेस्ट ही तो आया है अचार संहिता।अब आप ही बताऐं भला मैं अपनी भोली-भाली श्रीमती को कैसे समझाऊँ अचार और आचार की संहिता?
मुझे तो इतना ही समझ आता है---

जब से मेरे शहर में ,आचार संहिता आई
बाबूजी गुम होगये,अफसर ने आँख दिखाई ।
अफसर ने आँख दिखाई,सभी बस मौन रहो जी
नित दिन सुबह -शाम, साहब से हलो कहो जी ॥



डॉ.योगेन्द्र मणि

Wednesday, March 18, 2009

उड़ें जब जब ज़ुल्फें तेरी

उड़ें जब जब ज़ुल्फें मेरी


कल ही की बात कि है मोटर साइकल पर सवार दो नौजवान सड़क पर सीधे चलते-चलते वापस लौट पड़े।इसके बाद एक के बाद एक दुपहिया वाहन बीच रास्ते से वापस लौटते देख मेरा माथा ठनका कि आखिर माजरा क्या है।आगे रास्ते में कहीं कोई बेरियर लगा है या फिर कोई बंम फूट गया है जो सभी वापस आ रहे हैं।हमने सोचा हो सकत है आज सड़क के उस पार वाले मोहल्ले में हडताल हो।
बामुश्किल एक नौजवान को हमनें रोक कर पूछा -बेटा क्या हुआ जो तुमने अपनी बाइक बीच रास्ते से वापस मॊड़ ली।अचानक आज सभी को कुछ याद आ गया क्या, या फिर सड़क पर जाम लगा है। वह तुरंत बॊला -आप भी अंकल कैसी बतें करते हैं।वहाँ न तो कोई जाम लगा है और ना ही मुझे कुछ याद आया है । आगे चौराहे पर पुलिस खड़ी है ?
हमने अचरज से पूछा - तो क्या हुआ उनका तो रोज का काम है। तुम भला क्यों भाग रहे हो तुमनें कहीं कोई चोरी की है क्या ? या फिर किसी का एक्सीडेंट करके भाग रहे हो।इतना सुनते ही वह नौजवान भडक गया देखो- अंकल ऐसी बाते मत करो तुम्हें क्या मैं भगोड़ा दिखाई दे रहा हूँ ?
मैनें उसे शांत करते हुऐ कहा-नहीं बेटा तुम तो पढ़ने लिखने वाले नेक घर के शरीफ बच्चे लगते हो ।फिर भी बेटा ऐसे क्यॊं भाग रहे हो ?वह चिढ़ गया और बोला- चौराहे पर जो काका जी खड़े हैं ट्रेफिक पुलिस वाले हैं। हेलमेट की चॆकिंग कर रहे हैं और जिनके पास हे्लमेट नहीं हैं उनका चालान भी बना रहें हैं।
हमारी मोटी बुद्धी में अब जाकर बात घुस पाई,ओर बोले- भैय्या सीघे-सीधे क्यों नहीं कहते हो कि तुम चालान के ड़र से वापस भाग रहे हो। अब उन्हें कौन समझाये कि ये ट्रेफिक पुलिस वाले जो दिन भर माथा -कूट कर रहें हैं तुम्हारे ही भले के लिऐ कर रहे हैं ।जान हमारी और चिन्ता करनी पड़ रही है बेचारी पुलिस को, है न अजीब बात....? क्योंकि हम बिना भय के समझते नहीं हैं इसलिऐ कभी उन्हें चालान का ड़र ,तो कभी गाड़ी जप्त करने का ड़र दिखाना पड़ता है।और बार -बार समझाना पड़ता है कि भैय्या अपने माथे पे सुरक्षा कवच यानि कि हेलमेट पहन लो वरना दु्र्घटना होने पर दिमाग की चोट अच्छे-अच्छॊ का दिमाग खराब कर देती है।
लेकिन मानव स्वभाव है कि उनने समझाने पर भी बार बार भूल जाता है कि हमारे एक मात्र सिर की रक्षा से हम बददीमाग होने के खतरे से बच सकते हैं ।जब- जब पुलिस चालान बनाने का डर दिखाती है तो फोरन ही सड़कों पर टोपाघारी दुपहिया वाहन चालकों की संख्या में बढ़ोतरी हो जाती है और सड़क पर हेलमेट ही हेलमेट नजर आने लगते हैं।पुलिस ने जरा सी सुस्ती की नहीं कि सबके सर से हेलमेट भी गधे के सर से सींग की तरह गायब हो जाता है।
हमनें कॉलेज स्तर के एक छात्र से एक दिन पूछा- बेटा हेलमेट क्यॊं नहीं लगाते ,यह तो तुम्हारी सुरक्षा के लेऐ है।वह तपाक से बोला-देखते नहीं कल ही बालों की सेटिंग कराई है।हेलमेट लगाकर क्या सारे बालों की एसी-तैसी कर दूँ।बात भी सही है बालों की सेटिंग के बाद यदि किसी को पता ही न चले कि बाल किस खूबसूरती से हवा में लहराते हैं तो लानत है ऐसे बालों पर......!एक युवति से जब हमने हेलमेट नहीं लगाने पर सवाल किया तो वह भी अपने बालों के प्रति ज्यादा चिन्तित थी।बोली इस हेलमेट के चक्कर में सारी हेयर स्टाइल ही खराब हॊ जाती है ।इन पुलिस वालों को भी न जाने क्या होता है कि जब चाहे ड़ंड़ा लेकर पड़ जाऐगें। सर हमारा बाल हमारे ,हम चाहे जैसे रहे इन्हें क्या....?
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि लोग अपनी जान से ज्यादा बालों के लिऐ चिंतित हैं।यानि कि बाल है तो जहान है।हम अपने बालों को सजाते सवारते हैं और सरकार है कि नित नये कानून बनाकर बालों को हेलमेट के अंदर बंद कर देना चाहती है। बेचारे बालों का तो हेलमेट के अंदर घुटन में दम ही निकल जायेगा ।लेकिन जिनके सर पर गिनती के बाल बचे हैं उनका अलग ही तर्क है,कहते हैं- भैय्याजी वैसे भी सर पर गिनती के ही बाल है कम से कम इन्हें तो खुली हवा सांसे लेने दो। अब उन्हें कोन समझाऐ कि यह बची-खुची तुम्हारी खेती तो तब ही सुरक्षित रह पाऐगी जब तुम सही सलामत रहोगे।
लेकिन सुनता कौन है । लगता है सभी को बालों की चिंता जान से भी ज्यादा है।तभी तो उनके मन में शायद यह गाना नोन-स्टोप बजता रहता होगा---उड़े जब जब ज़ुल्फें तेरी कंवारियों का दिल मचले........!
अब कंवारियों का दिल तो मचलेगा तब मचलेगा समय समय पर ट्रेफिक पुलिस का ड़ंडा जरूर मचाल जाता हैऔर यदि सामने वाले वाहन का दिल मचल गया तो भैय्या फिर गई भैस पानी में......! घर वाले भी उस दिन को याद करके रोऐंगे जिस दिन उन्होंने राज दुलारे को दुपहिया लेकर दिया ।


डॉ.योगेन्द्र मणि

Tuesday, March 17, 2009

कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप

कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप.........?

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कुर्सी भी क्या चीज बनाई है ऊपर वाले ने जो भी इसके नजदीक तक जाता है वह इसी का हो कर रह जाता है । कुर्सी का नशा ही ऐसा है कि कुछ लोगों को कुर्सी के नशे में आस-पास कोई नहीं दिखता ,लेकिन कुछ लोगों को केवल उनके नजदीकी रिश्तेदार नजर आजाते हैं बस। इसलिऐ उनके द्वारा सारी कृपा दृष्टी अपने परिवार पर ही अटक कर रह जाती है।सरकारी कर्मचारी हो या अधिकारी उसकी कुर्सी स्थाई होती है भले ही राजनीति के चाक्करॊं के बीच पिसता हुआ कभी किसी शहर में तो कभी किसी शहर में डोलता फिरे फिर भी उसका ठसका ही निराला होता है आखिर सरकारी कुर्सी जो है उसके पास।
राजनीति की कुर्सी का टेस्ट कुछ अलग ही तरह का होता है ।भले ही उनकी कुर्सी टेम्परेरी होती है लेकिन भारतीय परम्परा के अनुरूप वह हमेशा सरकारी कुर्सी पर भारी रही है। इसीलिऐ एक आई.ए.एस.अधिकारी भी मंत्री, विधायक, वार्ड पार्षद और सरपंच के आगे पीछे घूमता नजर आयेगा।आखिर लोकतंत्र है जानता मालिक है सबकी ।अधिकारी क्या है भला नौकर है जनता का ।उसे तो हाथ बांध कर खडा होना ही होगा ,चाहे मंत्री जी अपने विभाग की ए.बी. सी. डी. भी नही जानता हो। अब इसे हमारे देश का सोभाग्य कहें या दुर्भाग्य कि एक आंगूठा टेक व्यक्ती देश का शिक्षा मंत्री तो बन सकता है लेकिन उसी मंत्रालय का चपरासी नहीं बन सकता ।
राजनीति में कुर्सी पर बैठ ने वाला भले ही टेम्परेरी हॊ लेकिन कुर्सी मैय्या तो आयुर्वेदिक दवाई की तरह बिना एक्सपायरी डेट की ही होती है इसीलिऐ राजनीतिज्ञों को समय समय पर जनता से अपनी मियाद बढ़्वाने के लिऐ जनता के दरबार में आना पड़ता है\और जनता बेचारी भी क्या करे वह केवल यह ढ़ूढ़ती है कि कौन कम भ्रष्ट है बस फिर लगा देती है ठप्पा अगले कार्यकाल के लिऐ। क्योंकि उसे अच्छी तरह मालूम है कि चोर -चोर मोसेरे भाई ।आखिर किससे और कहाँ तक बचेंगें ।
आप कुछ भी कहें कुर्सी का गरूर अलग ही होता है । उसपर बैठते ही लोगों की चाल-ढ़ाल ही बदल जाती है।तभी अक्सर लोग कहते भी है कि कुर्सी मिलते ही तेंवर बदल गए। बदलने भी चाहिऐं आखिर कुर्सी का नशा ही कुछ ऐसा होता है \इसीलिऐ मेरा मानना है कि कुर्सी मैय्या कुर्सी बाप, कौन खेत की मूली आप।। राजनीती में वैसे भी कुर्सी पाना कोई बच्चों का खेल नहीं है ।लोगों की जिंदगी गुजर जाती है कुर्सी के लिऐ दंड पेलते हुऐ तब जाकर बडे नसीब से मिल पाती है कुर्सी मैय्या......? कई लोग तो बेचारी कुर्सी की आस में आखिरी सांस तक छोड़ देते है और दिल के अरमानों को आंसुओं में बहाने के लिऐ छोड़ जाते है अपना भरा पूरा परिवार जो जिंदगी भर उन्हें बददुआओं के अलावा कुछ नहीं दे पाता ।
हमारी श्रीमती जी की भी बड़ी हसरत थी या यूँ कहिऐ कि अभी भी है कि हम भी कहीं से अपने लिऐ कोई अच्छी सी कुर्सी की जुगाड़ लगवालें। लेकिन भला उनकी किस्मत किसी भावी नेता की पत्नी जैसी कहाँ....? उन्होंने कई बार हमें समझाते हुऐ कहा कि आपके इस कलम घसीट अभियान से कुछ नहीं होने वाला। किसी भी सत्ताधारी दल के नेता की पूँछ पकड्कर कुछ अच्छा सा लिख दो बस। या फिर कुछ नेतओं के सम्मान में अच्छे से कसीदे गढ़ दो....सरकारी योजनाओं का गुणगान करो, फिर देखना हम कहाँ से कहाँ पहुँच जाऐगें ।आपके लिऐ कहीं न कहीं तो कुर्सी रिजर्व हो ही जाऐगी ।ओर यदि आपने कुर्सी का इस्तेमाल ढ़ंग से कर लिया तो अपने भी वारे न्यारे हो ही जाऐगें।अपनी तो पूरी पीढ़ी ही तर जाऐगी ।आपकी आने वाली सात पीढ़ियां तक आपका गुण गाऐंगी ।
अब आप ही बताऐं कि हम भी सरस्वती जी को छोडकर भला कुर्सी के लिऐ अपने आपसे गद्दारी कैसें करें झूठे यश गान कैसे गाऐ,यदि देश को आजाद कराते वक्त वे लोग भी कुर्सी मैय्या की गोद में जा बैठते तो आज भी गुलाम ही होते ।वैसे भी कलम में सच लिखने की ताकत बड़ी मुश्किल से आती है ।मेरा तो बस यही कहना है--
मुबारक हों उन्हीं को,ये मखमली बिस्तर
मुझे तो टाट पे सोने की आदत सी हुई है ॥


डॉ. योगेन्द्र मणि

Sunday, March 15, 2009

पुलिस जी की चोरी पकडी गई

पुलिस जी की चोरी पकड़ी गई

कानून- व्यवस्था,अमन - चैन,आदि ऐसे जुमले हैं जिसका आभास आम आदमी को होता रहे इसके लिऐ हमारे देश में एक अलग से ही विभाग है ।देश की सीमा पर देश की रक्षा करने के लिऐ अलग सीमा प्रहरी हैं तो देश के अंदर की देखभाल के लिऐ अलग महकमे को जिम्मेदारी सौपी गई है। अब कहीं भी चोरी हो जाऐ या कहीं ड़केती पड़ जाऐ हम तुरन्त ही ऐसी स्थिती में पुलिस जी को याद करते हैं ।कहीं भी कोई भी अपराध हुआ हो, या बलवा हुआ हो , आतंकी किसी के घर में घुस गया हो या कि कोई अनैतिक काम ही क्यॊं न हुआ हो ऐसी स्थिती में हमें पुलिस जी की ही याद आती है।बुरे वक्त में या तो लोग भगवान कॊ ही याद करतें हैं या फिर पुलिस को ।
भगवान क्योंकि आपकी सुनेगा नहीं सबको मालूम है और पुलिस को सुनना ही है।पुलिस के पास ड़ंड़ा भी है जो वक्त जरूरत अपना कमाल भी दिखाता है ।वैसे कहते भी है कि भय बिन प्रीत न होय गोपाला ।अब यह बात गोपाला की समझ में कितनी आई है या नहीं क्या पता लेकिन मुझे तो पुलिस से बड़ा ड़र लगता है।जब भी कहीं कोई खाकी वर्दी वाला दिख जाता है तो मैं तो दूर से प्रणाम कर साइड़ से निकल जाना ही बहतर समझता हूँ।
अमन चैन बना रहे,सभी को सुख शांती की साँसॊं का आभास होता रहे।चोरी चकारी आदि अपराधिक गतिविधियों पर अंकुश लगा रहे इसके लिऐ पुलिस का ड़ंड़ा भी जरूरी है।
जब भी कभी गली मोहल्ले,या फिर देश के किसी भी कोने में कोई घटना दुर्घटना ,अराजकता जैसी कोई भी स्थिती आती है पुलिस नामक यह जीव तुरंत आपनी ड्‌यूटी पर लग जाता है । हालाँकि कुछ लोगों को यह शिकायत रहती है कि पुलिस जी वहाँ देर से पहूँची ।लेकिन मैं कहता हूँ कि पहुँच तो गई । नहीं भी पहुँचेगी तो भला कोई क्या कर लेगा ।
लेकिन अब यहाँ समस्या दूसरे किस्म की पैदा हो गई। राजस्थान विद्युत निगम की मानें तो पुलिस जी चोर है ! है न अचरज की बात । चोरी भी की गई सामोहिक रूप से ।बात कुछ हजम होने वाक्ली तो नहीं है पर हम भी क्या करें, बॉरा जिला हेडक्वाटर पर ही बिजली अभियन्ता ने रंगे हाथों पुलिस लाइन के जवानों को बिजली चोरी करते पकड़ा । ऐसा समाचार अखबार में पढ़कर हम भी सन्न रह गये ।
जब पुलिस ही चोरी में लिप्त हो तो एसी अवस्था में आप और हम भला किसी चोर की शिकायत करने कहाँ जाऐगें प्रश्न वास्तव में विचारणीय है । वैसे इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस चोर होती है ।युँ भी भला मेरी क्या औकात कि मैं पुलिस को चॊर कहूँ।पुलिस को चोर तो विद्युत निगम के एक अदने से अभियन्ता ने कहा है ।
अजी कहा क्या है उन्होंने तो चोरी करते हुऐ पकड़ा है ।साथ में फोटो भी अखबार में छपा है, समाचार भी हैकि बॉराजिला हेडक्वार्टर पुलिस लाइन में ढ़ाई दर्जन आवासों में विद्युत चोरी की बात सरे आम अभियन्ता जी ने कही है और फोटो छपाई है सो अलग ।या यूँ कहें कि इन्होंने बाकायदा पुलिस को ही चोरी करते हुऐ दिखाया है ।अब आप ही बताऐ कि अभियन्ता जी का अब क्या होगा ?वैसे चोर पकड़ने वालों को ही चोरी करते पकडना और फिर सिपाही से लेकर आला अफसर तक की एक न सुनना वास्तव में है तो दिलेरी का काम।
अब प्रश्न उठता है कि आगे क्या होगा ?असली बात है जुर्माना वसूल करने की...---?क्योंकि पुलिस तो भैय्या पुलिस है।अब क्या होगा पुलिस जी का और उस अभियन्ता का जिसने पुलिस के आला अफसरों तक की एक नहीं सुनी क्योंकि बेचारे अभियन्ता जी को तो पुलिस के आला अधिकारी तक ने धमका दिया था जबकि गलत काम के लिऐ पुलिस कर्मियों को ड़ाटना चाहिऐ था ।
दाद देनी होगी अभियन्ता जी की दिलेरी को जॊमक्खियों के छत्ते में हआथ डालने का साहस कर सके ।उन्होंने सभी धमकियों को दरकिनार कर बिजली चोरी का मामला बना ही दिया और एक लाख दस हजार का जुर्माना भी ठोक दिया ।अब सवाल यह खडा होत है कि जब चोर पकडने वाला ही खुद ही चोरी करता हुआ पकडा जाय तो अब चोर को कौन पकडेगा। अब भला पुलिस जी चोर को किस मूह से आँखे दिखायेगी ।

डॉ .योगेन्द्र मणि

Monday, March 9, 2009

काल करे सो आज कर

काल करे सो आज कर

उद्‌घाटन,भाषण और जय-जय कार से भला किसको प्यार नहीं होता।वह भी जब ,जबकि आपको सत्ता की कुर्सी मिली हो।कल ही की बात है कि सुबह-सुबहश्रीमती जी ने हमारे हाथ में कैंची जा थमाई।हम हैरान....!हमारे मन में अंदर ही अंदर सैकड़ों घोड़े दौड़ने लगे।हमने पूछा -भाग्यवान आज कहीं उद्‌घाटन का फीता काटने जाना है क्या,जो हमारे हाथ में कैंची जा थमाई...?वैसे यदि कहीं उद्‌घाटन करने जाना भी है तो वहाँ कैंची तो मिल ही जयेगी,इसे साथ में लेजाने की भला क्या जरूरत....?
इतना सुनते ही श्रीमती जी की भृकुटी तन गई बोली-तुम्हें भला कौन बुलाऐगा उद्‌घाटन करने के लिऐ।तुम कोई मंत्री ,एम.पी.,या एम.एल. ए.हो या कहीं के वार्ड़-पार्षद हो जो कोई तुम्हें फीता काटने के लिऐ बुलाऐगा...?ये कैंची तो मैनें धार तेज करवाने के लिऐ दी है,कल नई सरकार के नये-नये मंत्री जी नाले की पुलिया का उद्‌घाटन करने आ रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि इस कैंची से रिबन भी नहीं कटे और पुलिया का ट्रेफिक हमेशा के लिऐ जाम ही हो जाऐ.......?
श्रीमती जी जिस पुलिया की बात कर रही थी उसपर आवाजाही नियमित रूप से काफी दिन पहले ही प्रारम्भ हो गई थी।लेकिन बिना शिलालेख लगे भला भावी पीढ़ी को कैसे मालूम पड़ेगा कि इस पुलिया का उद्‌घाटन फलां श्रीमान जी ने किया था ।और ओपचारिक रूप से उसपर चलकर दिखाया था कि देखो ड़रने की कोई बात नहीं है।मैनें पुलिया पार कर ली है....मजबूत है.... नहीं गिरेगी। यदि गिरेगी भी तो हम निश्चित रूप से मुआवजा देगें ...चिन्ता न करें..।
किसी भी सरकारी योजना को प्रारंभ करना हो,सड़्क निर्माण हो,पुल हो या कोई अन्य भवन...।सभी दलों के लोग सत्ता में आते ही ऐसे कार्यों को विशेष प्राथमिकता देते हैं जिसमें उनके नाम का चमचमाता शिलालेख लगना हो और उसपर उद्‌घातन कर्ता के रूप में उनका नाम लिखा हो।
सत्तामें आने पर जब शिलान्यास का पत्थर लगाया जात है तो राजनैतिक आवश्यकताओं को घ्यान में रखते हुऐ उस योजना को पूरे पाँच वर्षों तक लटकाना उनकी नैतिक आवश्यकता बन जाती है।ताकि अगले चुनाव में वे शान से अपने अधूरे कार्य पूरे करने के लिऐ एक ओर मौका आपसे बिना झिझक माँग सेके।
अब यह फैसला जनता को करना है कि जिससे शिलान्यास का पत्थर लगवाया,उसीसे उस योजना की इती श्री होने पर उद्‌घाटन भी उसी से करवाऐं या फिर कुछ नया करने के विचार से नए लोगों को सत्ता सुख का लाभ देते हुऐ अन्य को मोका दें।
अब भला यदि किसी को बना बनाया बंगला मिल जाये तो उसपर अपने नाम की प्लेट लगाने में भला किसी का क्या जाता है।ऐसे काम तो जितनी जल्दी कर लिऐ जायें उतना ही अच्छा रहता है।कल का कोई ठिकाना नहीं...कल क्या हो....?इसीलिऐ कहते हैं -
काल करे सो आज कर आज करे सो अब
न जाने कुर्सी कब हिले उद्‌घाटन करेगो कब॥
तभी तो इन पंक्तियों को ध्यान में रखते हुऐ एक मुख्यमंत्री जी ने तो चुनाव के पूर्व आचार संहिता लगे जिससे पहले ही एक दर्जन से भी अधिक योजनाओं के शिलान्यास पट्ट एक ही जगह पर रखकर उनका अनावरण कर दिया और फिर आवश्यकता अनुसार उन्हें यत्र तत्र सर्वत्र भेज दिया गया और स्थान ढ़ूढ़कर लगा दिया गया \..है न नायाब तरीका ...समय की बचत..पैसे की बचत...और नाम भी हो गया....।शायद यह अपने आप में एक अलग ही उदाहरण होगा एक साथ इतनी अधिक योजनाओं के पट्ट लगाने का....?
यह अलग बात है कि शायद शिलान्यास करने वालॊं को भी याद नहीं होगा कि मैने किस-किस योजना का शिलान्यास किया है और कहाँ-कहाँ पत्थर लगाऐ हैं..?हमारी जनता जनार्दन भी आजकल कम समझदार नहींहै वह उनसे भी चार कदम आगे है।उसने भी ऐसी पटकी लगाई कि पट्ट चिपकाने वालों को उद्‌घाटन फीता काटने का मौका ही नहीं दिया और फीता काटने के लिऐ कैंची दूसरों के हाथों में जा थमाई।इसीको तो कहते हैं शिलान्यास और उद्‌घाटन की सत्ता में संतुलन,,..........।


डॉ.योगेन्द्र मणि

Friday, March 6, 2009

अंजाम-ऐ गुलिस्तां क्या होगा.

अंजाम-ऐ गुलिस्तां क्या होगा......?

जुम्मन चाचा और भैय्याजी दोनों ही भरी दुपहरी में लगभग दौडनें के अंदाज में हमारे पास आऐ।हम आश्चर्य में पड़ गये कि आखिर माज़रा क्या है।हमनें भैय्या जी से पूछ ही लिया आखिर माज़रा क्या है..? भैय्या जी बोले -बच गये...बच गये....बाल- बाल बच गये.....।हम चकराऐ-भैय्या जी तुमहारे पीछे चोर -ड़ाकू पड़े हैं क्या.....?या फिर पुलिस पड़ी है,तुम्हारे पीछे.....?भैय्या जी सांस लेते हुऐ बोले-क्या बात करते हो आप भी ...पुलिस पड़े हमारे दुश्मनों के पीछे.....।तुम्हें मालूम है आतंकी हमले ने श्रीलंका की क्रिकेट टींम को लहू लुहान कर दिया।
तभी जुम्मन चाचा ने सुर मिलाते हुऐ कहा-वो तो अच्छा हुआ कि धोनी के धुरंधर वहाँ नहीं गये थे वरना....।तभी भैय्या जी ने बात पूरी करते हुऐ कहा-वही तो...हम बच गये।क्योंकि इस समय वहाँ भारत की टीम को जाना था लेकिन मुंबई के धमाकों की धसक से ही हम तो घबरा गये थे और पहले ही हमनें हाथ ऊचें कर लिऐ थे।अब श्रीलंकाई चीते जरा जोश में थ इसलिऐ चले गये।नतीजा सामनें है....बीच में से ही मैदान छोड़ कर भागना पड़ा।
वास्तव में जुम्मन चाचा और भैय्या जी की तरह देश के प्रत्येक बुद्धी वाले जीव के मन में यही सवाल उठता है कि आखिर ये हो क्या रहा है....?पड़ोसी देश में कभी कश्मीर घाटी की आज़ादी के नाम पर चारों ओर ढ़िढ़ोरा पीटा जाता है,तो कभी किसी भी ड्रामें में कोई भी सीन फिट करके अपने तथाकथित आकाओं कॊ दिखाकर अपना खर्चा पानी निकालने की जुगाड़ में वे लगे रहते हैं।और हम हैं कि राजनैतिक दावपेचों में उलझे शांती के पुजारी की छवी को सुधारने में लगे है ।इस चक्कर में अपने जवानों का कफ़न तक नुचवाने में न्हीं चूकते।
कभी कारगिल की सीमापर सेना की बली दे दी जाती है,तो कभी मुंबई के धमाकों में स्वाहा होने के लिये इन जवानों को झोक दिया जाता है।तभी भैय्या जी ने प्रश्न किया-हमें एक बात समझ नहीं आई कि इन तोप तमंचों की आवाज और खून की होली के छीटें देश के कर्णधारों तक नहीं पहुँचते क्या....?तभी जुम्मन चाचा ने कहा-पहुँचते तो हैं, तभी तो सभी नेता तुरन्त शोक संदेश पहुँचाने में कैसी जल्दी मचाते हैं।जैसे शोक प्रकट करके उन्होंने बहुत बड़ा किला जीत लिया हो ।साथ ही बड़े जोशीले भाषण दे देगें,हम ये कर देगें ...हम वो कर देगें उसपर वजन बढ़ा देगें...और नतीजा क्या हुआ भला इन सब का ....।उनके तथाकथित आकाओं नें यहाँ आकर तो हमारे स्वर में स्वर मिलाया और वहाँ जाकर उन्हें फिर से खैरात बांट दी।साथ ही सबको समझाने के लिऐ यह भी कह दिया कि इसका उपयोग आतंकवाद से लड़ने के लिऐ ही हॊगा नहीं तो......?वैसे सभी को पता है कि इस पैसे से कोई आतंकियों आ बाल भी नहीं उखाड सकता...और न ही आज तक वे उखाड़ ही पाऐ हैं....।
इस पर भैय्या जी ने बात बढ़ाते हुऐ कहा-यही तो बात है.....पहले तो विश्व के चौधरी ने इन्हें पालने -पोसने पर खूब खर्च किया सोचा था वक्त पर काम आयेगें ...लेकिन उसे क्या पता था कि उसकी बिल्ली उसे ही म्याऊँ कर गुर्राने लगेगी....।
अब देखा जाऐ तो बात भी सही है।हिन्दुस्तान का ड़र दिखा कर ज़िहाद के नाम पर जिन शैतानों को वे बरसों से पाल रहे थे अब वे उन्हें ही गुर्राने लगे हैं।हमारे नेता तो भाषणों से काम चला लेते हैं लेकिन पड़ोसी की हालत तो ऐसी है कि उससे न तो निगला ही जा रहा है और न ही उगला जा रहा है।अब आप ही बताऐं वे भी बेचारे करें तो क्या करें...?कभी-कभी तो दया आती है और रोना भी आता है उस दिन पर जब हमनें अपने ही जिस्म के दो टुकड़े कर दिये थे,और एक को छोटे भाई का दर्जा देकर नया घर बसाने की अनुमती दे दी थी।लेकिन अब अंजामें गुलिस्तां क्या होगा.....खुदा ही मालिक है........!


ड़ॉ.योगेन्द्र मणि

फरमाइश श्रीमती जी की

फरमाइश श्रीमती जी की .......

सुबह -सुबह चाय के प्याले के साथ जैसे ही श्रीमती जी ने अवतार लिया तो हम उनकी मधुर मुस्कान देखकर चौके और अच्छी तरह समझ गाऐ कि जरूर कोई न कोई विशेष बंम विस्फोट होने वाला है।जिसके तीखे घाव हमारे ही सीने पर होने वाले हैं।न जाने कितना बड़ा विस्फोट होगा.....?हम इसी उधेड़-बुन में लगे थे कि श्रीमती जी ने हमारी तंद्रा तोड़ते हुए कहा-सुनते हो.......!मैं भी भला उन्हें कहाँ तक समझाऊँ कि भाग्यवान पिछले पच्चीस बरस से तुम्हारी ही तॊ सुन रहा हूँ।ओर फिर भला किसी दूसरे की क्या मजाल जो हमें सुना दे...हम खाट ही खड़ी कर देगें उसकी । हालाँकि हम धीरे से ही बड़बड़ाए थे मगर ऐसी बातें उन्हें बहुत जल्दी सुन जाती हैं ।न सुनने की तोहमत तो केवल हमारे ही माथे पर ट्रेडमर्क की तरह चिपकी हुई है।
वे बोली-आप फिर वही पुरानी धिसी -पिटी बातों को मत बड़बड़ाया करो...।युँ पड़े रहने से कुछ नहीं होगा,कुछ करॊ ताकि हमारे भी सारे पाप धुल जाऐं और चैन से जिंदगी गुजार सकें।मैं कह रही हूँ कि आप मुझे मंत्री बनवा दो बस.......।
हम सकपकाऐ और धीरे से संभलते हुऐ बोले -भाग्यवान माँगन ही था तो दो-चार साड़ी माँग ली होती कम से कम हमारे बूते में तो थी।लेकिन यह तो चाँद मांगने जैसी बात हो गई।तुम्हें मालूम भी है तुम क्या कह रही हो....?मंत्री पद बाजार में मिलता है क्या जो तुम्हें ला कर दे दूँ।राज्य में मंत्री तो मुख्यमंत्री जी बनाते हैं ....यह उनके अधिकार क्षेत्र की बात है.....। वे तपाक से बॊली-वही तो ...मुख्यमंत्री जी के अधिकार क्षेत्र की ही तो बात है,इसीलिऐ आपसे कह रही हूँ...और आपकी तो उनसे अच्छी पटती है...।
हमनें समझाने की को्शिश करते हुऐ कहा-भाग्यवान मंत्री बनने के लिऐ बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं...और फिर तुम ठहरी निपट गंवार,अंगूठा छाप.....अपना नाम तक तो लिख-पढ़ नही सकती.ओर तो ओर एक घर तक तो तुमसे ठीक से चलता नहीं है मंत्री बनकर सरकार क्या खाक चलाओगी....?
लेकिन वे भला हथियार ड़ालने वाली कहाँ थी बोली-अजी आप भी क्या बच्चों जैसी बातें करते हो....।मैंने क्या कम पापड़ बेले हैं इस घर में...।रही बात अंगूठा छाप की तो आप अंगूठा छाप कहकर महिलाओं का अपमान कर रहें हैं ।वैसे भी कौनसी किताब में लिखा है कि बिना पढ़ा-लिखा मंत्री नहीं बन सकता....?
हम उन्हें कैसे समझाते कि यह कोई बच्चों का खेल नहीं है।सरकर चलाने में अच्छे-अच्छों के पसीनें आ जाते हैं लेकिन वे भला कहाँ चुप बैठने वाली थी बोली-क्यॊं बिहार में नहीं चली थी क्या सरकार.....?एक वे हैं जिन्होंने अपनी पत्नी को पूरा बिहार सौप दिया और एक आप हैं कि एक कुर्सी के लिऐ बहाने बना रहें हैं।अब यहाँ रजस्थान में तो बिल्कुल ताजा -ताजा ही उदाहरण है,यहाँ भी तो अभी- अभी बनाया ही है अनपढ़ महिला को मंत्री...।वैसे भी सरकार चलाने में किसीको करना भी क्या है। सरकार तो आई.ए.एस.,स्तर के सचिव अपनें आप चलाऐगें। आखिर वे वेतन किस बात की लेते हं....?
देखा जाऐ तो श्रीमती जी की बात भी सोलह आने सही है। हमारे देश में संविधान ही कुछ एसा है कि दफ्तर का चपरासी बनने के लिऐ पढ़ा-लिखा थोड़ा बहुत तो होना ही चाहिऐ ,लेकिन मंत्री ,एम.एल ए.,एम.पी.,बनने के लिऐ पढ़ा- लिखा होने की भी जरूरत नहीं।योग्यता के नाम पर राजनैतिक हथकंडों में निपुणता और जोड़- तोड़ में माहिर होना जरूरी है ..बस....!
मंत्रीजी अंगूठा टेक हों या चार जमात पढ़े हों कोई फर्क नहीं पड़ता ।पर एक पढ़ा लिखा सचिव जरूर ऐसा होना चाहिऐ जो हाथ बाँधर मंत्री जी की जी ह्जूरी करता रहेऔर उनकी ड़ाट खाने के लिऐ हर समय तैयार रहे ।हाँलाकि कभी कभी मंत्री जी की बेवकूफी का ये फायदा उठाते हुऐ सारी मलाई ही चट कर जाते हैं।और ज्यादा हल्ला हुआ तो जाँच बैठ जायेगी।इन जाँच में भला आजतक कोई नतीजा निकला है जो अब निकलेगा ,यह बात ये अधिकारी वर्ग अच्छी तरह से जानता है। इन्हें यह भी मालूम होता है कि किस मंत्री को कहाँ तक चलाया जा सकता है।
जो अधिकारीजितना अधिक मंत्री जी की ड़ाट फ्टकार खाने का आदि होता है वह उतना ही योग्य और कर्तव्य निष्ठ अधिकारी की श्रेणी में गिना जाता है,और वक्त -बेवक्त ईनाम भी पाता रहता है।इसीलिऐ जब से श्रीमती जी ने मंत्री बनने की अपनी इच्छा को सार्वजनिक किया है,तब से मेरे दिल में भी कभी -कभी खयाल आता है कि.............?

ड़ॉ.योगेन्द्र मणि

Wednesday, March 4, 2009

स्लम्डाग..जय हो जय हो..

स्लमड़ाग ...जय हो ........जय हो.........! !जय हो...जय हो....के घोष की घण्टाघर की तंग गलियों तक में चर्चा थी कि आखिर माज़रा क्या है...?टी। वी. पर सुबह से ही जय हो का नारा बुलंद है । आखिर जय किसकी.....?इसी गड़बड़ झाले में उलझे जुम्मन मियाँ नेभैय्या जी से पूछ ही लिया ,“ भैय्या जी विदेशी हमला हुआ है क्या....,जो चारों ओर जय हो की गूँज सुबह से ही टी. वी. पर हो रही है...?”भैय्या जी को भी अपने पाँच बार दसवीं फेल होने पर गर्व था,क्योंकि उन्हें मालूम है कि जुम्मन तो नवीं भी पास नहीं कर पाए तो भला दसवीं फेल का सम्मान वो कहाँ पा सकते थे॥। भैय्या जी ने सीना फुलाकर कहा तुम्हें मालूम नहीं है,स्लमड़ाग मिलेनियर को अवार्ड मिला है ।”जुम्मन चाचा ने कौतूहल से पूछा ,“ये ऑस्कर क्या है...?”-“फिल्मों का बहुत बड़ा ईनाम है जो विदेशों में मिलता है..?”-“लेकिन ये स्लमड़ाग मिलेनियर क्या बला है....?”-“फिल्म है और क्या...?तुम्हें मालूम है अँग्रेज़ फिल्म निर्माता ने बनाई है भारतीय फिल्म.... ! इस भारतीय फिल्में गंदी बस्तियों की गंदगी भी किस खूबसूरती से दिखाई है.......कि बस मज़ा आ गया...। फिल्म देखकर लगता है कि जैसे देश के कोने कोने में गंदगी के खूबसूरत ढ़ेर ही ढ़ेर हैं....जैसे हिंदुस्तान न हुआ गंदगी की खान हो गया हो..... ?”जुम्मन चाचा ने सिर खुजाते हुए कहा ,“ वह तो सब ठीक है किंतु स्लमड़ाग का मतलब क्या है....? यह भी कोई नाम हुआ....। जब फिल्म भारतीय ,कलाकार भारतीय तो नाम भी तो भारतीय होता कम से कम.....?स्लमडाग का मतलब मालूम है तुम्हें......?”अब भैय्या जी स्कूल में आते जाते इतनी अंगेजीँ तो सीख ही गये थे, तपाक से बोले ,“स्लम का मतलब है गंदी बस्ती और ड़ाग का मतलब.........”इससे पहले कि भैय्या जी के हलक से कुछ शब्द निकल पाते , जुम्मन चाचा तुरंत बोले,“ मालूम है हमें ड़ाग.....यानि ..कुत्ता.....।लेकिन यह क्या नाम हुआ...गंदी बस्ती का कुत्ता...करोड़पति ।”भैय्या जी ने समझाते हुए कहा कि कुत्ता नहीं... गंदी बस्ती में रहने वाला करोड़पति...। एक एसा बच्चा जो जिंदगी की किताब से इतना कुछ सीख जाता है कि उसके लिए किताबी पढ़ाई भी शून्य हो जाती है ।कौन बनेगा करोड़पति प्रतियोगितामें दो करोड़ जीतकर करोड़पति हो जाता है....।लेकिन जुम्मन चाचा का तर्क ही अलग था बोले वह सब तो ठीक हैभैय्या जी लेकिन फिल्म के नामाकरण में स्लम के साथ ड़ाग ही क्यों जोड़ा तुम्हें मालूम है.....। जुम्मन चाचा के सामने मेरा मुँह भी फटा रह गया बोला अच्छा तुम्ही बताओ...?वो बोले,“ सीधी सी बात है ,फिल्म बनाने वाला अँग्रेज़....,फिल्म में काटछाट करने वाला अँग्रेज़.....,फिल्म का निर्देशक अँग्रेज़......तुम्हें मालूम है अँग्रेज़ पहले भारतीयों को इंडियन ड़ाग कहकर दुतकारते थे ।अब इस फिल्म के माध्यम से एक बार ओर उन्हें गंदी बस्ती का कुत्ता कहने का मौका मिल गया....अब की बार कुत्ता कहकर शान से सम्मानित कर दिया बस......। अँग्रेज़ ज्यूरी खुश......हम भी खुश....पूरा देश ...खुश........चलो एसी बहाने ही सही .....जय हो.......जय हो.......जय हो........ ! !”

डा. योगेन्द्र मणि

बन्द का पाबन्द मेरा देश

बन्द का पाबन्द मेरा देश

“"‘क्यों जी यह बन्द क्या बला है ? कभी शहर बन्द ,तो कभी राज्य बन्द, तो कभी भारत बन्द....?बन्द न हुआ मलेरिया बुखार हो गया जो कभी किसी को तो कभी किसी को अपनी पकड़ में जकड़ लेता है।”"
सुबह -सुबह आँख खुलते ही बेड टी के साथ नाश्ते में प्रश्न परोसते हुऐ श्रीमती जी ने हमारी ओर हसरत भरी निगाहों से देखा जैसे कह रही हों नाश्ते में हलवा मैनें बडे चाव से बनाया है।खाइऐ न.....!हम उनकी आँखॊं में आँखे ड़ालकर कुछ कहने की सोच ही रहे थे कि वे बड़े आग्रह भरे स्वर में बोली ,"बतलाइऐ न........?हम भला क्या बतलाते? बात टालते हुऐ हमने कहा ," बेगम क्यों खामाखा सुबह -सुबह बन्द और खुले के चक्कर में पड़ती हो।हम भारत जैसे महान देश में रहते हैं।इतने बड़े देश में कहीं न कहीं कुछ न कुछ होता ही रहता है और होता ही रहेगा।तुम तो अपने दिल की खिड़कियों को हमेशा खोले रखना बस.....।यह बन्द- वन्द तुम्हारी सीमा के बाहर की बात है।’" इतने पर वे तुरन्त तुनक कर बोली,"क्यों मैं बेवकूफ हूँ क्या जो आपके समझाने पर भी नहीं समझ सकती। आपने कल संदूक बन्द करने के लिऐ कहा मैंने किया या नहीं ..?आपकी कविता को छोड़ कर आपने जो भी बात समझाई मैंने पल्लू से बाँध ली। मेरी हर साड़ी के पल्लू में आपको दो-चार गाँठें मिल ही जाऐगी....!आखिर मैं भी पाँच जमात पढ़ी हूँ। शादी के समय मेरी माँ ने कहा था,बेटी पति की हर बात पल्ले से बाँध लेना ...वो दिन है और आज का दिन है.....।"
-"बस देवी बस हम समझ गये आप बहुत समझदार हैं,मगर बन्द के चक्कर में हमें क्यॊं पाबन्द कर रही हो......?"
हम चाय की चुस्की लेने लगे तो उनका मुँह फ्यूज बल्ब की तरह प्रकाश हीन होकर लटक गया।इस फ्यूज बल्ब के तार को पुनः जोड़ने की प्रक्रिया में हम बोले,"देखो बेगम यदि तुम्हें हमसे कोई शिकायत हॊ और हम कान में तैल ड़ाल कर पड़े रहें तो तुम क्या करोगी...?"
-"हम अपनी शिकायत दोबारा आपसे करेंगे।"
-"हम फिर भी न सुनें तो.....?"
-"मै और जोर से अपनी बात कहूँगी।"
-"फिर भी न सुनें तो......?"
-"कैसे नहीं सुनोगे....?फिर मुझे गुस्सा आ जाऐगा ..... हाँ नहीं तो........।"
-"मान लो फिर भी नहीं सुना तो...."
-"अजीब आदमी हैं आप...?कैसे नहीं सुनेंगे...आप ऐसा कर के तो देखिऐ.....!मैं आपसे बात तक नहीं करूँगी,...रोटी ,पानी, चाय नाश्ता सब बन्द......।"
-"बस ..बस देवी बस...ऐसा ही होता है बन्द।"
-"क्या ?" श्रीमती जी मुँह फाड़ कर हमारी तरफ देखने लगी।हमने अपने पास बैठाते हुए शांत स्वर में समझाया,-"जब सरकर धीरे से नहीं सुनती तो हमें घंटियां बजानी पड़ती हैं,फिर ढ़ोल,बाजे और फिर पूरा नक्कारखाना....,,काम बन्द...बाजार बन्द...,ये सब ऐसे ही हथियार हैं।"
लेकिन देवी जई को हमारी बातों से संतुष्ट नहीं थी बोली-,"यह भी कोई बात हुई ..आजकल हर दूसरे महीने बन्द होता है।कभी कभी तो हर सप्ताह....जरा सी बात हुई कि हो गया बन्द....।"
-"कुछ तो उठा पटक करनी ही पड़ती है न श्रीमती जी, अखबारों में छपने के लिऐ।"
-"भाड़ में जाऐ ऐसी उठापटक.....! पाँच आदमियों ने मिलकर फैसला कर लिया ...और हो गया बन्द...क्या उन्होंने कभी सोचा है कि जो मजदूर रोजाना कमाता है और रोजना खाता है...यदि वह मजदूरी पर नहीं जाएगा तो आपके बन्द से उसके पेट की सूखी आँतॊं की ऐंठान कम हो जाऐगी क्या....?"
-"भाग्यवान ये झंड़े वाले लोग सब कुछ उन्हीं के लिऐ तो कर रहें हैं ..देखती नहीं इनकी एक ही आवाज में पूरे बाजार में मुर्दानगी छा जाती है।"
-"आप क्या समझते हैं सभी अपनी इच्छा से बन्द करते हैं.....?बड़ा दुकानदार तो इसलिऐ बन्द करता है चलो इस बहाने थोड़ा आराम तो मिलेगा।उसकी तो एक महीने भी दुकान बन्द हो जाऐ तो कोई फर्क नहीं पड़ता।लेकिन छोटे दुकन्दार गालियां देते हैं बन्द के नाम पर....!वे बन्द करते हैं तो केवल इसलिऐ कि आज का उपवास कर ले गें कोई बात नहीं...! यदि वे बन्द न करें तो लोग उनका धंधा बन्द करवा देगें सब कुछ लूट कर.....।"
जैसे सत्तापक्ष के लोग प्रधानमंत्री का भाषण बड़ी शांती से सुनते हैं उसी तरह हम भी श्रीमती जी का भाषण बडी तन्म्यता से सुन रहे थे।हमने धीरे से उनके प्रवचनों में व्यवधान ड़ालते हुऐ कहा-,"बेगम तुम सत्ता पक्ष में शामिल हो गई क्या...?इस पर वे तुनक कर बोली -,"भाड़ में जाऐ सत्त पक्ष ओर विपक्ष दोनों ही....।हमें किसी से क्या लेना देना।सभी अपनी अपनी रोटियां सेकनें में लगें हैं और राजनैतिक उठापतक में पिसता है केवल वही गरीब जिसने इन्के लिऐ आपना रात दिन एक कर दिया तथा पक्ष और विपक्ष दोनों ही भाषणों में इसी गरीब की भलाई की दुहाई देते नजर आऐगें।"
हम भी अब भला क्या कहते श्रीमती जी ने तो हमरी बोलती ही बान्द कर दी...?अब हम तो न इधर के रहे न उधर के ...।त्रिशंकु की तरह बीच में लटक कर रह गाऐ।हमने श्रीमती जी का ऐसा सारगर्भित प्रवचन पहली बार सुना था।हम भी आम आदमी की तरह व्यर्थ में ही अपनी बुद्धी खर्च कर रहें हैं।इस बन्द के चक्कर में..।लेकिन फिर भी हम मिट्टी के माधो कब तक बनें रहेंगे।अपना और अपने पड़ोसियों का हित हम नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा।वैसे हम भी किसी को क्या समझाऐ क्योंकि अभीतक हम भी नहीं समझ पा रहें है कि माजरा क्या है....?

डॉ.योगेन्द्र मणि

Tuesday, March 3, 2009

हम नहीं सुधरेंगे

‘मैने कहा जग गए क्या........?’
अगर जग गए हों तो आपकी चाय बना दूँ.....!
यह हमारी श्रीमती जी का स्वर था ।जो सुबह सुबह आँखे खुलते ही हमारे कान भी खोल देता है। अब आप ही सोचिऐ सुबह-सुबह कोई आपकी चाय बनाने की कोशिश करेगा तो आफँसेंगे या रोऐगें।हमनेउन्हें कई बार समझाया कि कि भाग्यवान !आखिर किस जन्म का बैर निकालना चाहती हो हमारी चाय बना कर।कोई भला आदमी सुनेगा तो क्या कहेगा ?मगर नहीं साहब उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला ।थोडी देर में श्रीमती जीने हाथ में चाय का कप थमाते हुए वही घिसे - पिटे शब्द दोहराते हुए कहा,‘‘लीजिए आपकी चाय” और हम चुपचापअपनी चाय पीने में ही खैरियत मनाते हैं। खैर साहब यह तो अर्थ के अनर्थ का एक नमूना मात्र है। कई बार हमारी हालत और भी पतली हो जाती है जब कि हम केरोसिन की पीपी दुकानदार के सामने रखते हैं और दुकान दार हमारी बारी आने पर बडी शालीनता से कहता है,“आपको इसमें डाल दूँ ?”वैसे सब्जी और फल वाले भी बाबूजी की टांग खीचने में पीछे नहीं रहते !आम वाला बड़े जोश से आवाज लगाता है बाबूजी लंगडा़,.......बाबूजी लंगडा़.......!हमनें उसे कई बार समझाया कि भैय्या, क्यों बाबू जी की ताँग तोडने पर तुले हो....?और वह ही ही कर बत्तीसी दिखादेगा बस....।जैसे हम बरसों से उसकी बत्तीसी देखने के लिऐ तरस रहे हों !केले वाला ,‘बाबू जी रुपये के आठ ’की आवाज लगाता है तो आलू वाला ,‘बाबूजी रुपये किलो ’का ऐलान करता घूमता है। अब हम उन्हें कहाँ तक समझाए कि भैय्या जी बाबू जी को इतना सस्ता मत आंको ,वरना लाला अपनी फेक्ट्री में रुपये के आठ बाबू लगा लेगा ...!मगर हमारी सुनता कौन है साहब.......! अभी कुछ ही दिन पूर्व की बात है हम गेंहूँ पिसवाने गये,कि एक सज्जन बडी जल्दी में थे और बोले,“सेठ्जी पहले मुझे पीस दो ।”हम चौके और धीरे से पूछा ,‘क्यॊ भैय्या जी ....क्याजिन्दगी से इतने परेशान हो गये जो यहाँ चक्की पर पिसने चले आये ।’वह खीजता हुआ बॊला ,‘आप नहीं समझेंगे ,मैं अपना पीपा पिसवाने आया हूँ ।’ हम बोले इस छोटी सी चक्की में आपका पीपा भला कैसे पिस सकता है.......?मेरे विचार से चक्की में गेंहूँ जरूर पिस सकता है।’ शायद श्रीमान जी को हमारी दखलन्दाजी पसंद नहीं आई।क्योंकि हम उनके तेंवर देख कर ही समझ गए थे इसलिए चुपचाप वहाँ से खिसकने में ही खैरियत थी । हम कई बार मोहल्ले- पडोस वालों के भी बडे काम आते हैं। क्योंकि छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज हम मुफ्त में ही कर दिया करते हैं। मगर कई बार हम बडे संकट में पड़ जाते हैं जब कोई आकर कहता है ,‘सर मिटने की गोली होगी आपके पास॥?’हमनें उन्हें कई बार समझा दिया कि भैय्या जी क्यों बेचारे सर के पीछे पडे हो !यदि किसी के पेट में दर्द होगा तो आकर कहेगा पेट मिटने की दवा है॥?हम उन्हें कैसे समझाते भैय्या जी पेट ही मिट जाऐगा तो सारा चक्कर ही समाप्त हो जाऐगा। वैसे कुछ लोग हमारी इस तरह की टीका तिप्पणी से झल्ला भी जाते है। लेकिन हम उन्हें कैसे समझाऐ कि गलती पर हम नहीं वें स्वयं हैं। एक बार तो हद हो गई साहब । हमारे बहुत पुराने मित्र एक दिन दल-बल सहित हमारे घर पधारे।उनकी पत्नी और पुत्र से हम पहले से परिचित नहीं थे।अतः जिज्ञासा वश उनके साथ आए पाँच वर्षीय बालक की ओर इशारा करते हुए हमने पूछा,‘यह आपका बेटा है ॥?’ मित्र तपाक से बोला,‘आपका ही है.....।’खैर हमने बुरा नहीं माना जैसा उनका बच्चा वैसा हमारा॥!उनके साथ आई स्त्री के विषय में हमनें अनुमान लगाते हुए पूछा ,‘और यह आपकी पत्नी...........?’व तुरन्त गर्मजोशी से बोले,‘जी हाँ....जीहाँ......आपकी ही है.......!’ हम तुरन्त सतर्क हो गए। यह तो अच्छा था उस समय हमारी श्रीमती जी रसोई में व्यस्त थीं ।वरना....खैर छोडिये भी ...वैसे भी मै ऐसी मनहूस बातें नहीं सोचता॥।हमने सामान्य होने के लिए बालक से बात चलानी चाही,‘तो ये आपके मम्मी- पापा है.....?’मगर यह क्या वह तो उनसे भी चार कदम आगे था बोला,‘जी हाँ आपके ही हैं.....!’हम समझ गये कि बेटा बाप का भी बाप निकलेगा। अब आप ही बताएँकि हम भला किस किस को कहाँ तक सुधारें ?अब तो लगता शायद हमें ही सुधरना पडेगा। क्योंकि शायद इस तरह के लोगों नें तो कसम खाई कि हम नहीं सुधरेंगे ।वैसे भी हमें भी क्या पड़ी है किसीको सुधारने की॥?


डॉ योगेन्द्र मणि

Sunday, March 1, 2009

घण्टा घर

घंटागर शहर का एक मात्र व्यस्ततम केन्द्र है जहाँ लगता है यहाँ रहने वाले लोग इस व्यस्त भाग दौड़ वाली जिंदगी में भी बिल्कुल फ्री ही फ्री हैं और उनके पास टाइम ही टाइम है जिसे गुजारने के लिए ही ये यहाँ जमघट लगाए रहते हैं।
दिन का समय हो या रात के बारह बजे हों ,हर समय पान की दुकान या चाय की जवान मनचलों से लेकर एक्सपायरी ड़ेट कि दवाई की तरह के एसे उमर दराज़ लोग, जो बहू बेटोंके तानों के बोझ से कसमसा रहें है यहाँ मिल जाऐगें।जो कि अपने मन का बोझ हल्का करने के लिए या तो इधर उधर जर्दे की पीक थूकते नजर आऐगें या फिर आधी बीड़ी फूककर आधीबुझी बीड़ी को बटुऐ में ठूसते दिखेगें।
इसे देखकर लगता है किइन्हें आज से ज्यादा कल की चिन्ता है।क्योंकि हो सकता है कि कल बीड़ी का सुट्टा कगाना भी नसीब हो या नहीं हो....?या फिर ऊपर वाले का ही बुलावा आजाये। इन्हें शायद चिन्ता है कि यदि बुलावा आ ही गया तो किसे पता किवहाँ बीड़ी की तलब पूरी हो भी पाऐगी या नहीं...!वैसे भी क्या पता वहाँ देसाई छाप मिले या फिर गणेश छाप.....ब्रांड़ बदलते ही सारा टेस्ट बिगड़ जता है....।
एसे ही एक्सपायरी ड़ेट के बुजुर्ग नौजवान हैं हमारे भैय्या जी...जो सठियाने की उम्र पार कर के भी अभी तक जवान हैं।उनसे बात करो घर की तॊ खलियान तक का रास्ता बता देंगेल्लेकिन घर के दर्वाजे का दर्श्न नहीं होने देगें।बेचारा सामने वाला ही भूल जाता है कि वह यहाँ कर क्या रहा है...?और यदि उनके साथ जुम्मन चाचा बातों का तड़का लग जाऐ तो अच्छे अच्छे बुद्धिजीवइयों की बुद्धी पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है....?
सोचता हूँसारी बुद्धी तो भैय्या जी और जुम्मन चाचाके पास है तो बुद्धिजीवी भला क्या बेच कर खाते होंगें ...? सर्वधर्म सम्पन्न है यह घण्टाघर...।वैसे ‘धर्म’श्ब्द का उपयोग कथित रूप से अम आदमी के लिऐ प्रतिबन्धित है । क्योंकि इसका उपयोग प्रायःसिआसी पार्टियां या फिर कथित नेता ही करते हैं ।जब जब कुर्सी की लड़ाई शुरू होती है तो बैय्या जी को भी अहसास होने लगता है कि वह हिन्दू हैऔर जुम्मन चाह्चा की नींद खुलती है कि वह मुसलमान है।कुर्सियों की दौड़ के समय के अलावासभी को ही एसा लगता है कि वे सभी हिन्दुस्तानी हैं।
ईद की सवैयां हो या होली दीवाली की मिठाई सभी मिलकर इनका स्वाद लेते हैं।एक साथ चाय की चुस्कियांलेकर जर्दा घिसते भैय्याजी और जुम्मन चाचा भी अब समझनें लगे हैंअब इस कुर्सी संग्राम के दाव पेंचों को...।इसीलिए तो वक्त बेवक्थोते रहने वाले इस मौसमी बदलाव का अब इन पर कोई असर नहीं होता । इन सभी से अनजानाज भी ये अच्छे लंगोटिया यार होने का दम बरते हैं। वैसे देखा जाए तो घण्टाघर का आम आदमी भी बातों बातों मेंकब कोटा की तंग गलियों से निकल कर कब संसंद भवन और रात्रपति भवन में प्रवेशकर जयपुर की व्ज्धान सभा की छत से कूद कर दशहरा मैदान की क्जहानी सुनाने लगे पता नहीं चलता ......।

डा.योगेन्द्र माणि

Thursday, February 26, 2009

स्लम्डाग..जय हो जय हो..

स्लमड़ाग ...जय हो ........जय हो.........! !
जय हो...जय हो....के घोष की घण्टाघर की तंग गलियों तक में चर्चा थी कि आखिर माज़रा क्या है...?टी. वी. पर सुबह से ही जय हो का नारा बुलंद है । आखिर जय किसकी.....?इसी गड़बड़ झाले में उलझे जुम्मन मियाँ नेभैय्या जी से पूछ ही लिया ,“ भैय्या जी विदेशी हमला हुआ है क्या....,जो चारों ओर जय हो की गूँज सुबह से ही टी. वी. पर हो रही है...?”
भैय्या जी को भी अपने पाँच बार दसवीं फेल होने पर गर्व था,क्योंकि उन्हें मालूम है कि जुम्मन तो नवीं भी पास नहीं कर पाए तो भला दसवीं फेल का सम्मान वो कहाँ पा सकते थे..। भैय्या जी ने सीना फुलाकर कहा तुम्हें मालूम नहीं है,स्लमड़ाग मिलेनियर को अवार्ड मिला है ।”
जुम्मन चाचा ने कौतूहल से पूछा ,“ये ऑस्कर क्या है...?”
-“फिल्मों का बहुत बड़ा ईनाम है जो विदेशों में मिलता है..?”
-“लेकिन ये स्लमड़ाग मिलेनियर क्या बला है....?”
-“फिल्म है और क्या...?तुम्हें मालूम है अँग्रेज़ फिल्म निर्माता ने बनाई है भारतीय फिल्म.... ! इस भारतीय फिल्में गंदी बस्तियों की गंदगी भी किस खूबसूरती से दिखाई है.......कि बस मज़ा आ गया...। फिल्म देखकर लगता है कि जैसे देश के कोने कोने में गंदगी के खूबसूरत ढ़ेर ही ढ़ेर हैं....जैसे हिंदुस्तान न हुआ गंदगी की खान हो गया हो..... ?”
जुम्मन चाचा ने सिर खुजाते हुए कहा ,“ वह तो सब ठीक है किंतु स्लमड़ाग का मतलब क्या है....? यह भी कोई नाम हुआ....। जब फिल्म भारतीय ,कलाकार भारतीय तो नाम भी तो भारतीय होता कम से कम.....?स्लमडाग का मतलब मालूम है तुम्हें......?”
अब भैय्या जी स्कूल में आते जाते इतनी अंगेजीँ तो सीख ही गये थे, तपाक से बोले ,“स्लम का मतलब है गंदी बस्ती और ड़ाग का मतलब.........”
इससे पहले कि भैय्या जी के हलक से कुछ शब्द निकल पाते , जुम्मन चाचा तुरंत बोले,“ मालूम है हमें ड़ाग.....यानि ..कुत्ता.....।लेकिन यह क्या नाम हुआ...गंदी बस्ती का कुत्ता...करोड़पति ।”भैय्या जी ने समझाते हुए कहा कि कुत्ता नहीं... गंदी बस्ती में रहने वाला करोड़पति...। एक एसा बच्चा जो जिंदगी की किताब से इतना कुछ सीख जाता है कि उसके लिए किताबी पढ़ाई भी शून्य हो जाती है ।कौन बनेगा करोड़पति प्रतियोगितामें दो करोड़ जीतकर करोड़पति हो जाता है....।
लेकिन जुम्मन चाचा का तर्क ही अलग था बोले वह सब तो ठीक हैभैय्या जी लेकिन फिल्म के नामाकरण में स्लम के साथ ड़ाग ही क्यों जोड़ा तुम्हें मालूम है.....। जुम्मन चाचा के सामने मेरा मुँह भी फटा रह गया बोला अच्छा तुम्ही बताओ...?
वो बोले,“ सीधी सी बात है ,फिल्म बनाने वाला अँग्रेज़....,फिल्म में काटछाट करने वाला अँग्रेज़.....,फिल्म का निर्देशक अँग्रेज़......तुम्हें मालूम है अँग्रेज़ पहले भारतीयों को इंडियन ड़ाग कहकर दुतकारते थे ।अब इस फिल्म के माध्यम से एक बार ओर उन्हें गंदी बस्ती का कुत्ता कहने का मौका मिल गया....अब की बार कुत्ता कहकर शान से सम्मानित कर दिया बस......। अँग्रेज़ ज्यूरी खुश......हम भी खुश....पूरा देश ...खुश........चलो एसी बहाने ही सही .....जय हो.......जय हो.......जय हो........ ! !”


डा. योगेन्द्र मणि